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________________ उनासी पर्ण ४५१ समान कांति जा की पर गौर कीर्तिकर संयुक्त जो बलदेव श्रीरामचन्द्र तिन सहित ऐसे सोहे जैसे प्रयाग में गंगा यमुना प्रवाहका मिलाप मोहै । अर यह राजा चंद्रोदयका पुत्र विराधित है जाने लक्ष्मणासे प्रथम मिलाप कर विस्तीर्ण विभूति पाई अर यह राजा सुग्रीव aिsharपुरका aft मा पराक्रमी जाने श्रीराम देवसे परम प्रीति जनाई पर यह सीताका भाई भामण्डल राजा जनकका पुत्र चंद्रगति विद्याधग्ने पाला मो विद्याधरका इन्द्र है और यह अंगदकुमार राजा सुग्रीवका पुत्र जो रावणको बहुरूपिणी विद्या साधते को घनी भार हे सखी, यह हनूमान महा सुन्दर उतंग हाथिनके रथ पढा पवन कर हाले हैं वारके चिह्नकी ध्वजा जाके, जाहि देख रणभूमिमें शत्रु पलाय जांग सो राजा पवनका पुत्र अंजनीके उदर में उपजा जाने लंका कोट दरवाजे ढाहे हैं। ऐसी वार्ता परस्पर स्त्रीजन करे हैं तिनके वचनरूप पुष्पनिकी मालाकर पूजित जो राम सो राजमार्ग होय आगे गए। एक चमर ढरती जो स्त्री ताहि पूछा हमारे विरहके दुःख कर तप्तायमान जो भामण्डलकी वहिन सो कहां तिष्ठे है ? तब वह रत्ननिके चूडाकी ज्योतिकर प्रकाश रूप है भुजा जाकी सा अंगुरी कर समस्या कर स्थानक दिखावती भई । हे देव, यह पुष्पप्रकीर्ण नाग गिरि निरकरना नोंके जलकर मानों हाय ही करे हैं त नन्दन वन समान महा मनोहर वन ताविषै राजा जनक की पुत्री कीर्ति शोल है परिवार जाके सो तिष्ठे है । या भांति रामजीसे चमर ढारती स्त्री कहती भई र सीताके समीप जो उर्मिका नाम सखी च सखिनमें प्रीति की भजनहारी सो अंगुरी पसार सीताको कहनी भई – हे देवि ! यह चन्द्रमा समान है छत्र जिनका अर चांद सूर्य समान हैं कुंडल जिनके घर शरदके नीझरने समान है हार जिनके सो पुरुषोतम श्रीरामचन्द्र तिहारे बल्लभ आए । तिहारे बियोग कर मुखमें अत्यन्त खेदको धरे हैं । हे कमलनेत्र ! जैसे दिग्गज आवे तैसे आचे हैं। यह वार्ता सुन सीताने प्रथम तो स्वप्न समान वृतांत जाना बहुरि आप अति आनंदको घरे जैसे मेघपटलसे चन्द्र निकसे तैसे हाथीसे उतर आए जैसे रोहिणी के निकट चन्द्रना आवे तैसे आए तब सीता नाथ को निकट जान की मरी उठकर संमुख आई। कैरी हैं सीता ? धूरकर धूसर है अंग अर केश बिखर रहें हैं श्याम पड गए हैं होठ जाके स्वभाव कर कृष हुनी र पतिके वियोगकर अत्यन्त कृश भई अब पतिके दर्शन कर उपजा है प्रतिहर्ष जाको, प्राण की आशा बाँधी, मानो Feat भरी शरीर की कांतिकर पतिसे मिलाप ही करें है श्रर मानो नेत्रनिकी ज्योतिरूप जल कर पतिको स्नान ही करावे है और क्षणमात्रमें बढ गई है शरीर को लावण्य रूप सम्पदा Refh भरे निश्वास कर मानो अनुराग के भरे बीज बोने है। कैसे है जोता ? र नेत्रनिको विश्रामकी भूमि पर पल्लव समान जे हस्त तिनकर जीते हैं लक्ष्नी के करकमल जाने, सौभाग्य रूप रत्ननिकी खान सम्पूर्ण चन्द्रमा समान है वदन जाका चन्द्र कल की यह निःकल के, त्रिजुरी समान है कांति जाकी, वह च चन यह निश्चल, प्रफुल्ति कमल समान हैं तंत्र जाते, मुखरूप चन्द्रकी चन्द्राकर अतिशाभाको प्राप्त भई है यह अवार्ता है कि कम तो चन्द्रकी ज्यो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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