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पन-पुराण धिक्कार अर मोकों धिक्कार जो अते काल विषयासक्त हा इतने काल कामादिक वैरियोंसे उगाया। अब मैं ऐसा करू जाकरिं बहुरि संसार कनविष भ्रमण न कर। अत्यन्त दुःखरूप जो चार गति तिनमें भ्रमण करना बहुत थका । अब भवसागरमें जिपसे पतन न होय सो करूंगा। तब रावण कहते भय यह मुनिका धर्म वृद्धोंको शोभै है। हे भव्य ! तू तो नवयौवन है तब सहस्ररश्मिने कहा-'लालके यह विवेचना नहीं, जो वृद्धीको प्रस तरुणको न स । काल सर्वभक्षी है बाल वृद्ध युवा सबहीको ग्रस । शरदका मेघ क्षणामात्रमें विलाय जाय तैसे यह देह तत्काल विनस है। हे रावण ! जो इन भागोंहीके विपे सार होय तो महापुरुष काहेको तर्जें, उत्तम है बुद्धि जिनकी औसे मेरे यह पिता इन्होंने भोग छोड़ योग आदरा तो योग ही सार है। यह कहकर अपने पुत्रको राज्य देय रावणसे क्षमा कराय पिताके निकट जिनदीचा प्रादरी अर राजा अरण्य अयोध्याका धनी सहस्ररश्मिका परममित्र है सो उनसे पूर्व वचन था जो हम पहिले दोक्षा धरेंगे तो तुम्हें खबर करेंगे अर उनले कही हुती हम दीक्षा धरेंगे तो तुम्हें खबर करेंगे सो उनपै वैरायके समाचार भेजे । भले मनु-योंने राजा सहसूरश्मिका वैराग्य होनेका वृत्तांत राजा अरण्यसे कहा सो सुनकर पहिले तो सहसूरश्मिका गुण स्मरण कर आंसू भर विलाप किया फिर विषादको बंदकर अपन समीप लोगोंसे महाबुद्धिमान कहते भये जो रावण बैरीका भेकर उनका परम मित्र भया जो एश्वर्यके पिंजरेमें राजा रुक रहे थे विषयोंकर मोहित था चित्त जिनका सो पिंजरेसे छुड़ाया। यह मनुष्यरूप पक्षी माया जालरूप पिंजरेमें पड़ा है सो परम हितू ही छुड़ावें हैं । माहिष्मती नगरीका धनी राजा स-सूरश्मि धन्य है जो रावण रूप जहाजको पायकर संसार रूप समुद्रको तिरंगा । कृतार्थ भया अत्यन्त दुखका देनहारा जो राजकाज महापाप ताहि तजकर जिनराजका ब्रत लेनका उद्यमी भया , या भांति मित्रकी प्रशंसा कर आप भी लघु पुत्र को राज देय बड़े पुत्र सहित अरण्य मुनि भए । हे श्रेणिक ! कोई एक उत्कृष्ट पुण्यका उदय आवै तब शत्रका तथा मित्रका कारण पाय जीवको कल्याणकी बुद्धि उपजै अर पापकर्मके उदयकर दुर्बु द्धि उपजै जो कोई प्राणीको धर्मके मार्गमें लगावै सोई परममित्र है अर जो भोग सामग्रीमें मेरै सो परम बैरी है अस्पृश्य है। हे श्रेणिक ! जो भव्य जीव यह राजा सहस्ररश्मि झी कथा भावधर सुनै सो मुनित्रतरूप संपदा तो प्राप्त होकर परम निर्मल होय, जैसा सूर्यके प्रकाशकर तिमेर जाय तैसे जिनवाण के प्रकाशकर मोह तिमिर जार ।। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण भाषा वचनिकाविषै महस्ररश्मि अर अरण्यके नैराब
निरूपण करनेवाला दशवां पर्व पूर्ण भया ।। १० ।।
अथानन्तर रावणने जे जे पृथ्वीविष मानी राजा सुने ते ते सर्व नवाए, अपने वश किए अर जो श्राप मिले तिनपर बहुत कृपा करी अनेक राजाओंसे मण्डित सुभृमि चक्रवर्तीकी न्याई पृथ्वीविष विहार किया। नाना देशके उपजे नाना भेषके धारणहारे नाना प्रकार आभूषणके पहरनेहारे नाना प्रकारकी भाषाके बोलनेहारे, नाना प्रकारके बाहनोंपर चढ़े नाना प्रकारके
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