________________
ग्यारहवां पर्व मनुष्योंकर मंडित अनेक राजा उन सहित दिग्विजय करता भया ठौर ठार रत्नमई सुवर्गमई अनेक जिनमन्दिर कराये पर जीर्ण चैत्यालयोंका जीर्णोद्धार कराया, देवाधिदेव जिनेंद्रदेवकी भावसहित पूजा करी ठौर ठौर पूजा कराई, जो जैनधर्मके द्वपी दुष्ट मनुष्य हिंसक थे तिनको शिक्षा दीनी अर दरिद्रियोंको दयाकर धनसे पूर्ण किया अर सम्य दृष्टि श्रावकों का बहुत आदर किया, साधर्मियोंपर है वात्सल्यभाव जाका, अर ज मुनि सुने वहां जाय भक्तिकर प्रणाम कर जे सम्यकन्वरहित द्रव्यलिंगी मुनि अर श्रावक हुते तिनकी भी शुश्रूषा करी, जैनी मात्रका अनुरागी उत्तरदिशाको दुस्सह प्रताप गट करता विहार करता भया जैसे उत्तरायणके सूय का अधिक प्रताप होय तो पुण्यकर्मके प्रभावसे रावणका दिन दिन अधिक तेज होता भया।
अथानन्तर रावण ने सुनी कि राजपुरका राजा बहूत बलवान है अतिअभिमानको थरता हुवा किसीको प्रणाम नहीं कर है अर जन्मसे ही दुष्टचित्त है मिथ्या मार्गकर मोहित है अर जीव हिंसा रूप यज्ञ मार्गविषे प्रवर्ता है । तब यज्ञका कथन सुन राजा श्रेणिकने गौतम म्वाभीसे कहाहे प्रभो! रावण का कथन तो पोछे कहिये पहले यज्ञकी उत्पत्ति कहो यह कौन वृत्तांत है जिसमें प्राणी जीवघातरूप घोर कर्ममें प्रवरते हैं। तब गणधरने कही-'हे श्रेणिक! अयोध्याविष इक्ष्वाकुवंशी राजा ययाति उसकी राणी सुरकांता अर पुत्र वसु था सो जब पढ़ने योग्य भया तब क्षीरकदम्ब ब्राह्मणपे पढ़नको सौंपा, क्षीरकदम्बकी बहू स्वस्तिमती अर नारद ब्राह्मण देशान्तरी धर्मात्मा सो क्षीरकदम्बपे पढ़े अर क्षीरकदम्बका पुत्र पर्वत महापापी सो भी पढ़े। क्षीरकदम्ब अति थर्मात्मा सर्व शास्त्रोंमें प्रवीण शिष्यों को सिद्धांत तथा क्रियारूप ग्रंथ तथा मंत्रशास्त्र काव्य व्याकरणादि अनेक ग्रंथ पड़ावै । एक दिन नारद बसु अर पर्वत इन तीनों सहित हीरकदम्ब बनविले गए। वहां चारण मुनि शिष्यों सहित विराजे हुने सो एक मुनिने कहा-ये चार जीव हैं,-एक गुरु तीन शिष्य । तिनमें एक गुरु एक शिष्य यह दो सुबुद्धि हैं पर दो शिष्य कुबुद्धी हैं ऐसे शब्द सुनकर वीरकदम्ब संसारसे अत्यन्त भयभीत भए शिष्योंको तो संख दीनी सो अपने २ घर गए मानों गायके बछड़े बंधनसे छुटे अर वीरकदम्बने मुनि दीक्षा धरी । जव शिष्य घर आए तब क्षीरकदम्बकी स्त्री स्वस्तिमती पर्वतको पूछती भई-तेरा पिता कहां तू अकेले ही घर क्यों आया ? तब पर्वतने कही हमको तो सीख दीनी कर कहा हम पीछेसे आवै हैं यह वचन सुन स्वस्तिमती महाशोकवती होय पृथ्वीपर पड़ी अर रात्रिवि चकवीकी नाई दुख कर पीडित विलाप करती भई हाय हाय, मैं मंदभागिनी प्राणनाथ विना हती गई । किसी पापीने उनको मारा अथवा किसी कारणकर देशान्तरको उठ गए अथवा सर्वशास्त्रविषै प्रवीण थे सो सर्वपरिग्रहको त्याग र वैराग्य पाय मुनि होगए इस भांति बिलाप करते रात्रि पूर्ण भई। जब प्रभात भया तव पर्वत पिताको ढूढने गया । उद्यान में नदी के तट पर मुनियोंके संघ सहित श्रीगुरु विराजे हुते तिनके समीप विनयसहित पिता बैठा देखा तब पीछे जायकर मावासे कही कि हे मात ! हमारा पिता मुनियोंने मोहा है सो नग्न हो गया है। तब स्वस्तिमती निश्चय बानकर पतिके वियोगसे अति दुखी भई । हाथोंकर उरस्थल को कूटती भई अर पुकारकर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org