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________________ एकसौपांचवां पर आर्यिकापै जाय कर दीक्षा धरती भई एक वस्त्र मात्र है परिग्रह जिसके अर सब परिग्रह तज कर आर्यिकाके व्रत धर महापवित्रता युक्त परम वैराग्यकर दीक्षा धरती भई ब्रतकर शोभायमान जगतके बंदिवे योग्य होती मई अर राम अचेत भए थे सो युक्ताफल मलयागिरि चन्दनके छांटिवे कर तथा ताडके बीजनोंकी पवन कर सचेत भए तर दशो दिशाकी ओर देखें तो सीताको न देख कर चित्त शुन्य हो गया, शोक र विषाद कर युक्त महा गजराज पर चढे सीताकी ओर चले सिर पर छत्र फिरें हैं चमर दुरे हैं जैसे देवनिकर मंडित इन्द्र चले तैसे नरेन्द्रों कर युक्त राम चले कमल सारिखे हैं नेत्र जिनके कपायके वचन कहते भए अपने प्यारे जनका मरण भला परन्तु विरह भला नाहीं देवनिने सीताका प्रातिहार्य किया सो भला किया पर उसने हमको तजना बिचारा सो भला न किया अब मेरी राणी जो यह देव न दें तो मेरे अर देवनिके युद्ध होयगा यह देव न्यायवान् होय कर मेरी स्त्री हरें ऐसे अविचार वचन कहे । लक्ष्मण समझाचे सो समाथान न भया अर क्रोध संयुक्त श्रीरामचन्द्र सकलभूपण केवली की गन्धकुटीको चले सो दूरसे सकलभूषण केवलोकी गन्ध कुटी देखी। केवली महाधीर सिंहासन पर विराजमान अनेक सूर्य की दीप्ति धरें केवल ऋद्धिकर युक्त पापोंके भम्म कग्वेिको साक्षात् अग्निरूप जैसे मेध पटल रहित सूर्यका बिंब सोहै तैसे कर्मपटल रहित केवल ज्ञानके तेजकर परम ज्योतिरूप भासे हैं इन्द्रा दिक समस्त देव सेवा करें हैं दिव्य ध्वनि खिरे है धर्मका उपदेश होय है सो श्रीगम गन्धकुटी को देख कर शांतचित्त होय हाथीसे उतर प्रभुके समीप गये तीन प्रदीक्षणा देय हाथ जोड नमः स्कार किया। केवलीके शरीरकी ज्योतिकी छटा राम पर पाय पडी सो अति प्रकाश रूप होय गये, भाव सहित नमम्कार कर मनुष्यनिकी सभा में बैठे अर चतुरनिकायके देवोंकी सभा नाना प्रकारके आभूषण पहिरे ऐसी भासे मानों केवली रूप जे रवि तिनकी किरण ही है अर राजावों के राजा श्रीरामचन्द्र केवलीके निकट ऐसे सोहै हैं मानों सुमेरुके शिखरके निकट कल्पवृत ही हैं अर लक्ष्मण नरेंद्र मुकुट कुण्डल हागदि कर शोभित कैसे सोहैं मानों विजुरी सहित श्याम घटा ही है अर शत्रुघ्न शत्रुवोंको जीतनहारे ऐसे सोहैं मानों दूसरे कुवेर ही हैं अर लवणअंकुश दोनों वीर महा धीर महा सुन्दर गुण सौभाग्यके स्थानक चांद सूर्यमे सोहैं अर मीता आथिका आभूषणादि रहित एक वस्त्र मात्र परिग्रह ऐसी सो है मानों सूर्यकी मूर्ति शांतताको प्राप्त भई है । मनुष्य अर देव सब ही विनय संयुक्त भूमिमें बैठे धर्म श्रवणकी है अभिलाषा जिनके । तहां एक अभयघोष नामा मुनि सब मुनिनिमें श्रेष्ठ संदेह रूप आतापकी शांतिके अर्थ केवलीसे पूछते भए -हे सर्वोत्कृष्ट सर्वज्ञ देव ज्ञानरूप शुद्ध आत्मतत्वका म्वरूप नीके जाननेसे मुनिनिको केवल बोध होय, उसका निर्णय करो। तब सफलभूषण केवली योगीश्वरोंके कर्मोके क्षयका कारण तत्वका उपदेश दिया उसका रहस्य तुमको कहूँ हूँ जैसे समुद्र में से एक बूंद कोई लेय तैसे केवलीकी वाणी अति अथाह उसके अनुसार संक्षेप व्याख्यान करूहूं सो सुनी हो भव्य जीव हो ! आत्मतत्व जो अपना स्वरूप सो सम्यग्दर्शन ज्ञान प्रानन्द रूप भर अमूर्तीक चिद्रूप लोक प्रमाण असंख्य प्रदेशी अतेंद्री अखंड अव्यावाध निराकार निर्मल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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