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पभ-पुराण पडा अपने यात्माको भव पिंजरसे निकास । पाया है जिनमार्गमें बुद्धिका प्रकाश तेने तू अनादि कालका संसार भ्रमणसे खेदखिन्न भया अब अनादिके बंधे आत्माको छुडाय । हनूमान ऐसा निश्चय कर संसार शरीर भोगोसे उदास भया जाना हैं यथार्थ जिनशासनका रहस्य जिसने जैसे सूर्य मेष रूप पटलसे रहित महा तेजरूप भासे तैसे मोह पटलसे रहित भासता भया जिम मार्गसे होय जिनवर सिद्धपदको सिधारे उस मार्गमें चलिवेको उद्यमी भया॥ इतिश्रीरबिषेणाचार्यविरचित महा पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषावचनिकाविर्षे हनूमानका
वैराग्य चिंतान वर्णन करनेवाला एकसौ बारहवां पर्व पूर्ण भया ॥१५२ ।।
अथानन्तर रात्रि व्यतीत भई सोला बानीके स्वर्ण समान सूर्य अपनी दीप्तिकर जग तमें उद्योत करता भया जैसे साधु मोक्षमार्गका उद्योत करे नक्षत्रोंके गण अस्त भए अर सूर्यके उदयकर कमल फूले जसे जिनराजके उद्योतकर भव्य जीवरूप कमल फूले । हनुमान महा वैरग्यका भरा जगतके भोगोंसे विरक्त मंत्रियोंसे कहता भया जैसे भरत चक्रवर्ती पूर्व तपोवनको गए तैसे हम जावेंगे तब मंत्री प्रेमके भरे परम उद्वेगको प्राप्त होय नाथसे विनती करते भए हे देव ! हमको अनाथ न करो प्रसन्न होवो हम तिहारे भक्त हैं हमारा प्रतिपालन करो तब हनूमानने कही तुम यद्यपि निश्चयकर मेरे आज्ञाकारी हो तथापि अनर्थके कारण हो, हितके कारण नहीं जो संसार समुद्रसे उत्तरै अर उसे पीछे सागरमें डारे ते हितू कैसे ? निश्चय थकी उनको शत्रु ही कहिए जब या जीवने नरकके निवासमें महादुःख भोंगे तब माता पिता मित्रभाई कोई ही सहाई न भया। यह दुर्लभ मनुष्य देह अर जिनशासनका ज्ञान पाय बुद्धिवानोको प्रमाद करना उचित नहीं अर जैसे राज्यके भीगसे मेरे अप्रीति भई तैसे तुमसे भी मई यह कम जनित ठाठ सर्व विनाशीक है निसंदेह हमारा तिहारा वियोग होयगा जहां संयोग है तहां वियोग है सुर नर पर इनके अधिषति इन्द्र नरेंद्र यह सब ही अपने अपने कर्मोंके आधीन हैं कालरूप दावानल कर कौन २ भस्म न भए । मैं सागरा पर्यंत अनेक भव देवोंके सुख भोगे परन्तु तृप्त न भया जसे सूके इन्धनकर अग्नि तृप्त न होय । गति जाति शरीर इनका कारण नाम कर्म है जाकर ये जाव गति गतिमें भ्रमण करे हैं सो मोहका बल महाबलवान है जाके उदयकर यह शरीर उपजा है सो न रहेगा यह संसार वन महाविषम है जाविषये प्राणी मोहको प्राप्त भए भवसंकट भोगे हैं उसे उलंघकर मैं जन्मजरा मृत्यु रहित जो पद तहां गया चाहुं हूं यह बात हनुमान मंत्रियोंसे कही सो रणवासकी स्त्रियोंने सुनी उसकर खेदखिन्न होय महारुदन करती भई । जे समझानेमें समर्थ ते उनको शांतचित करी कैसे हैं समझावन हारे नाना प्रकारके वृत्तांतमें प्रवीण अर हनुमान निश्चल है चित्त जाका सो अपने वडे पुत्रको राज्य देय अर सबोको यथा योग्य विभूति देय रत्नोंके समूहकर युक्त देवोंके विमान समान जो अपना मन्दिर उसे तजकर निकसा। स्वर्ण रत्नमई देदीप्यमान जो पालकी तापर चढ चैत्यवान् नामा वन तहां गया सो नगरके लोक हनुमानकी पालकी देख सजल नेत्र भये पालकीपर ध्वजा फरहरे हैं चमरोकर शोभित हैं मोतियोंकी झालरियोंकर मनोहर है हनूमान वनविष आया । सो वन नानाप्रकार के वृक्षों कर मंडित श्रर जहां सूवा मैना मयूर हंस कोयल भ्रमर संदर शब्द करे हैं अर नानाप्रकारके धोकर सुगंध
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