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________________ 239 एकसौ बारहवा पा अनेक सुगन्ध पुष्पोंसे स्पर्श पवन आई उस कर सेनाके लोक सुखसे रहे जिनं‍ र देवकी कथा करवो किए रात्रीको आकाशसे देदीप्यमान एक तारा टूटा सो हनूमानने देखकर मन में बिचारी हाय हाय इस संसार असार वनमें देव भी कालवश है ऐसा कोई नहीं जो कलसे बचे विजुरीका चमत्कार पर जलकी तरंग जैसे क्षण भंगुर हैं तैसे शरीर विनश्वर है इस संसार में इस जीवने अनंत भवमें दुख ही भोगे, यह जीव विषयके सुखको सुख माने है सो सुख नहीं दुख ही है पराधीन है विषम क्षणभंगुर संभारविषै दुख ही है सुख नहीं होय हैं, मोहका माहालय है जो अनन्तकाल जीव दुख भोगता श्रमण करे है अनन्तावसर्पणी उत्सर्पिणी काल भ्रमणकर मनुष्य देह कभी कोईपावे है सो पायकर धर्मके साधन वृथा खोये हैं यह विनाशीक सुख होय महा संकट पावे हैं। यह जीव रागादिकके वस भया वीतरागके भावको नहीं जाने है यह इन्द्रिय जैन मार्गके आश्रय विना न जीते जांय यह इन्द्रीं चंचल कुमार्ग विषै लगाय कर जीवों को इस भव परभव में दुख दाही हैं जैसे मृग मीन अर पक्षी लोभके यशसे बधिकके जाल में पड़े हैं तैसे यह कमी क्रोध लोभी जीव जिनमार्गको पाए बिना अज्ञानके वशसे प्रपंचरूप पारथीक विद्वाय विषय रूप जाल में पडे है जो जीव श्राशीविष सर्पसमान यह मनइन्द्री तिनके विषय में र में हैं सो मूढ दुखरूप श्रग्नि में जरे हैं जैसे कोई एक दिन राज्यकर वर्ष दिन त्रास भोगवे तैसे यह मूढ जीव अल्प दिन विषयोंके सुख भोग अनन्त कालपर्यंत निगोदके दुख भोगवे हैं जो विषयक सुखका अभिलाषी सो दुःखका अधिकारी हैं, नरक निगोदके मूल यह विषय तिनको ज्ञानी न चाहें मोह रूप ठगका ठगा जो आत्म कल्याण न करे सो महाकष्टको पावै जो पूर्व भवमें धर्म उपार्ज मनुष्य देह पाय धर्मका आदर न करे मो जैसे धन ठगाय कोई दुखी होय है तैसे दुखी होय अर देवोंके भी भोग भोगि यह जीव मरकर देवसे एकेंद्री होय है इस जीव के पाप शत्रु हैं और कोई शत्रु मित्र नहीं और यह भोगही पापके मूल हैं इनसे तृप्ति न होय, यह महा भयंकर हैं पर इनका वियोग निश्चय होयगा यह रहने के नाहीं जो मैं इस राज्यको अर जो यह प्रियजन हैं तिनको तज कर तप न करू तो अतृप्त भया भूमि चक्रवर्ती की नाई मरकर दुर्गतिको जाऊंगा अर यह मेरे स्त्री शोभायमान मृगनयनी सर्व मनोरथकी पूर्ण हारी पतिव्रता स्त्रियोंके गुणनिकर मंडित नव यौवन हैं सो अब तक मैं अज्ञानसे इनको तज न सका सो मैं अपनी भूलको कहां तक उराहना दूं । देखो मैं सागर पर्यंत स्वर्ग में अनेक देवांगना सहित रमा अर देवसे मनुष्य होय इस क्षेत्र में भया सुन्दर स्त्रियों सहित रमा परन्तु तृप्त न भया जैसे ईवनसे अग्नि तृप्त न होय भर नदियोंसे समुद्र तृप्त न होय तैसे यह प्राणी नानाप्रकारके विषय सुख तिनकर तृप्त न होय मैं नानाप्रकारके जन्म तिनमें भ्रमणकर खेद खिन्न भया । रे मन तू शांतताको प्राप्त होहु कहा व्याकुल होय रहा है क्या तैने भयंकर नरकों के दुःख न सुने जहां रौद्र ध्यान हिंसक जीव जाय हैं जिन नरकों में महा तीव्र वेदना असिपत्र बन वैतरणी नदी संकट रूप है सकल भूमि जहां । रे मन तू नरक से न डरे है राग द्वेष कर उपजे जे कर्म कलंक तिनको तप कर नाहि खिपावे हैं तेरे एते दिन योंदी वृथा गए विषय सुख रूप कूपमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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