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पद्म-पुराण
अथानन्तरमहा प्रतापकर पूर्ण महाबली हनुमान जैसे सुमेरुको सौम जाय तैसे त्रिकूटालको चला सो आकाशमें जाती जो हनुमान की सेना ताका महा धनुष के आकार मायामई यंत्रक निरोध भया तब हनूमान अपने समीपी लोकनितें पूछी जो मेरी सेना कोन कारण आगे चल न सके ? यहां गर्व का पर्वत असुरनिका नाथ चमरेन्द्र है अथवा इन्द्र है तथा या पर्वत के शिखरमें जिन मन्दिर हैं अथवा चरमशरोरी मुनि हैं तब हनुमानके ये वचन सुनकर पृथुमति मंत्री कहता भया - हे देव ! यह क्रूरतासंयुक्त मायामई यंत्र है तत्र आप दृष्टि घर देखा, कोटमें प्रवेश कठिन जाना मानों यह कोट विरक्त स्त्रीके मन समान दुःप्रवेश है, अनेक आकारको घरे वक्रताकरि पूर्ण, महाभयानक सर्वभक्षी पूतली जहां देव भी प्रवेश न कर सकें जाज्वल्यमान तीच्ण हैं अग्र भाग जिनके ऐसे करोतनिके समूहकर मण्डित जिह्वा के अग्रभाग करि रुधिरको उगलते ऐसे हजारों सर्प तिनकरि भयानक फण, ते विकराल शब्द करे हैं अर विषरूप अग्निके करण बरसे हैं रूप घूमकर अन्धकार होय रहा है । जो कोई मूर्ख सामन्तपणाके मानकरि उद्धत 'भया प्रवेश करे ताहि मायामई सर्प ऐसे निगलें जैसे सर्प मेंड को निगलें, लंका के कोटका मंडल जोतिष चक्रते हूं ऊंचा सर्व दिशांनमें दुर्लघ घर देखा न जाय प्रलयकाल के मेघ समान भयानक शब्द कर संयुक्त अर हिंसारूप ग्रन्थनि की न्याई अत्यन्त पापकर्गनिकरि निरमापा ताहि देखकर हनूमान विचारता भया यह मायामई कोट राक्षमनिके नाथने रचा है सो अपनी विद्याकी चातुयता दिखाई है और अब मैं द्यबल करि याहि उपाडता संता राक्षमनिका मद हरू जैसे आत्मयानी मुनि मोह मदको हरे तब हनूमान युद्ध में मनकर समुद्र समान जो अपनी सेना सो आकाश में राखी पर आप विद्यामई वक्तर पहिर हाथ में गदा लेकर मायामई पूतली के मुख में प्रवेश किया जैसे राहुके मुख में चन्द्रमा प्रवेश करे थर वा मामई पूतलीकी कुक्षि सांई भई पर्वत की गुफा अन्धकारकर भरी सो आप नरसिंहरूप तीक्ष्ण नखनिकर विदारी कर गदाके घातसे कोट चूरण किया जैसे शुक्लध्यानी मुनि निर्मल भावनिकरि घातिया कर्मकी स्थिति चूरण करे ।
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अथानन्तर यह विद्या महाभयंकर भंगको प्राप्त भई तब मेवकी ध्वनि समान ध्वनि भई विद्या भाग गई को विघट गया जैसे जिनेन्द्रकं स्तोत्रकरि पापकर्म विघट जाय तब प्रलयकाल के मेघ समान भयंकर शब्द भया मायामई कोट बिखरा देख कोटका अधिकारी वज्रमुख महा क्रोधायमान हो शीघ्र ही स्थपर चढ हनूमान पर विना विचारे मारने को दौड़ा जैसे सिंह अग्निकी ओर दौडे जब वाहि आया देख पवनका पुत्र महायोधा युद्ध करियेको उद्यमी भया तत्र दोऊ सेनाके योधा प्रचण्ड नाना प्रकार के बाहसनियर चढे अनेक प्रकारके आयुध घरे परस्पर लडने लगे बहुत कहनेकरि कहा ? स्वामी के कार्य ऐसा युद्ध भया जैसा मानके अर मार्दव के युद्ध होय अपने २ स्वामीकी दृष्टिमें योवा गाज २ युद्ध करते भए जीवनमें नाहीं है स्नेह जिनके, फिर हनूमान के सुभटनिकर बज्रमुखकं योवा क्षणमात्र में दशदिशा भाजे पर हलूम ने सूर्य अधिक है ज्योति जाकी ऐसे चक्र शस्त्रकरि बज्रमुखका सिर पृथिवीपर डारा । यह सामान्य चक्र है चक्री अर्धचक्रिनिके सुदर्शनचक्र होय है । युद्धमें पिताका मरण देख लंकासुन्दरी बज्रमुखकी पुत्री
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