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________________ पद्म-पुराण जल जिसका ऐसा रावणरूपी समुद्र अति क्षोभ को प्राप्त भया । क्रोधस शरीरम पसव आ गया अर आंखों की भारतासे समस्त आकाश लाल हो गया अर क्रोधरूपी स्वरके उच्चारणसे सर्व दिशा बधिर करते हुवे पर हाथियोंका मद निवारते हुये गाज कर ऐसा बोल्या "कौन है वैश्रवण अर कौन है इंद्र ? जो हमारे गोत्रकी परिपाटीसे चली आई जो लंका, उसको दाब रहे हैं। जैसे काग अपने मनसे सिवा होय रहै अर स्य'ल आपको अष्टापद माने तैसे वह रङ्क आपको इंद्र मान रहा है । सो यह निर्लज्ज है अधम पुरुष है, अपने सेवकोंसे इन्द्र कहाया तो क्या इन्द्र हो गया ? हे कुदा ! हमारे निकट तू ऐते कठोर वचन कहता हुआ कुछ भय नहीं करता ?" ऐसा कह कर म्यानसे खड्ग काढा, आकाश खड्गके तेजसे ऐसा व्याप्त हो गया जैसे नील कमलोंके वनसे महा सरोवर व्याप्त होय । - तब विभीषणने बहुत विनयसे रावणसे विनती करी अर दूतको मारने न दिया अर यह कहा " हे महाराज ! यह पराया चाकर है इसका अपराध क्या ? जो वह कहावे सो यह कहे इसमें पुरुषार्थ नहीं। अपनी देह आजीविका निमित्त पालनेको बेची है यह सूपा समान है । ज्यों दूसरा बलावे त्यों बोले । यह दूत लोग हैं इनके हिरदेमें इनका स्व मी विशाचरूप प्रवेश कर रहा है। उनके अनुसार वचन प्रवरते हैं जैसे बाजित्री जिस भांति बादित्रको वजावे उसी भांति बाजे तैसे इनका देह पराधीन है स्वतन्त्र नहीं तारों हे कृपानिधे ; प्रसन्न होशे अर दुखी जीवोंपर दया करो। हे निष्कपट महावीर ; रक के मारनेसे लोकमें बड़ी अपकीर्ति होय है । यह खड्ग तुम्हारा शत्रु लोगोंके सिरपर पड़ेगा, दीनके बध करने योग्य नहीं। जैसे गरुड़ गेड़ोंको न मारे तैसे आप अनाथको न मारो" या भांति विभीपणने उत्तम वचनरूपी जलकरि रावणकी क्रोधाग्नि बझाई । कैसे हैं विभीषण ? महा सन्पुरुष हैं, न्यायके वेत्ता हैं । रावणाके पायन पड़ दृतको बचाया अर सभाके लोकोंने दूतको बाहिर निकारा धिक्कार है सेवकका जन्म, पराधीन दुख स है है । - दूतने जाय..र सर्व समाचार वेत्रवणसों वहे। रावणके मुखकी अत्यन्त कठोर वाणी रूपी ईधनस वैश्रवणके क्रोधरूपा अग्नि उठी सो चित्तविष न समाये वह मानों सर्व सेवकोंके चित्तको बांट दीनी । भायाथ-सर्व क्रोवरूप भए । रणसंग्रामके बाजे बजाये, वैश्रवण सर्व सेना ले युद्धके अर्थ बाहिर निइसे इस वैश्रवण के वंशके विद्याधर यक्ष कहावें सो समस्त यतोंको साथ ले राक्षसों पर चले । अति झलमलाट : रते खड्ग सेल चक्र बाणादि अनेक आयुधोंको धर हैं । अंजनगिरि समान माते हाथियोंके मद झरे हैं मानों नीझरने ही हैं तथा बड़े रथ अनेक रत्नोंसे जड़े सन्ध्याके बादल के रङ्ग समान मनोहर महा तेजबन्त अपने वेगसे पवनको जीते हैं तैसे ही तुरङ्ग अर पयादयोंके समूह समुद्र समान गाजते युद्ध के अर्थ चले । देवोंके विमान समान सुन्दर विमानोंपर चढ़े विद्याधर राजा वैश्रवणके लार चले कर रावण इनके पहिले ही कुम्भकरणादि भाइयों सहित बाहिर निकसे । युद्धकी अभिलामा रखती हुई दोनों सेनाओंका संग्राम गुंज नामा पर्वतके ऊपर भया । शस्त्रों के पातसे अग्नि दिखाई देने लगी। खड़गों के वातस घोड़ों के हीसिनेसे पयादोंके नादसे हाथियोंके गरजनेसे रथोंके परफर शब्दसे वात्रिोंके बाजा से तथा बाणोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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