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गियालीसा पर्व
अवलोकन करते अपने ताई दयावन्त जान निर्भय भए बिचरे हैं । यह मृग माण सू कायर सो पापी जीवनके भयते अति सावधान हैं, तुमको देख अति प्रीति को प्राप्त भए विस्तीर्ण नेत्र कर पारम्बार देखे हैं। तुम्हारेसे नेत्र इनके नाहीं ताते आश्चर्य को प्राप्त भए हैं अर यह वनका शूकर अपनी दांतली कर भूमिको विदारता गर्वका भरा चला जाय है लग रहा है कर्दम जाके अर हे मजगामिनी, या वन विष अनेक जातिके गजनिकी घटा विचर हैं सों तुम्हारीसी च ल तिनकी नाही तातै तिहारी चाल देख अनुरागी भए हैं अर ये चीते विचित्र अंग अनेक वर्ण कर शोभे हैं जैसे इन्द्र धनुष अनेक वर्ण कर सोहे है।
हे कलानिधे ! यह वन अनेक अष्टापदादि क्रूर जीवनि कर भरा है अर अति सघन पूवनि कर भरा है अर नाना प्रकारके तृणनि कर पूर्ण है की एक महा सुन्दर है जहां भय रहित मृगनिके समूह विचरे हैं। कहूं यक महा भयंकर अति गहन है जैसे महाराजनिका राज्य अति सुन्दर है तथापि दृष्टनिको भयंकर है अर कहीं एक महामदोन्मत्त गजराज वृचनिको उनाडे है जैसे मानी पुरुष धर्मरूप वृक्षको उखाडे है । कहूँ इक नवीन वृक्षनिके महा सुगौंथ समूह पर भ्रमर गुंजार करे हैं जैसे दातानिके निकट याचक अावें कोहू ठोर वन लाल होय रहा है काह ठोर श्वेत काहू ठौर पीत काहू ठौर हरित काहू ठोर श्याम काहू ठौर चंचल काह ठौर निश्चल काहू ठौर शब्द सहित काहू ठौर शब्द रहित काहू ठौर गहन काहू ठौर विरले वृक्ष, काह ठीर सुभग काहू ठोर दुभंग काहू ठौर विरस काहू ठौर सरस काहू ठौर सम काहू ठोर विषम कार ठोर तरुण काहू ठौर वृक्षवृद्धि या भांति नाना विध भासे है यह दण्डक नामा वन विचित्र गति लिए है जैसे कर्मनिका प्रपंच विचित्र गति लिये है, हे जनकसुता ! जो जिन धर्म को प्राप्त भए हैं तेही या कर्म प्रपंचते निवृत्त होय निर्वाणको प्राप्त होय हैं । जीवदया समान कोऊ धर्म नाहीं जो श्राप समान पर जीवनिको जान सर्व जीवनिकी दया करें तेई भव सागर म तिरें। यह दण्डक नामा पर्वत जाके शिखर आकाशमों लग रहे हैं ताका नाम यह दण्डक वन कहिए है या गिरिके ऊंचे शिखिर हैं पर अनेक धातुकर भरा है जहां अनेक रंगन करि आकाश नाना रंग होय रहा है । पर्वतमें नाना प्रकारकी औषधी हैं कैयक ऐसी जडीजे दीपक समान प्रकाशरूप अंधकारको हरें तिनको पवनका भय नाहीं पवनमें प्रज्वलित रहैं और या गिरिते नीझरने झरे हैं जिनका सुन्दर शब्द होय रहा हैं जिनके छांटोंकी बन्द मोतिनको प्रभाको घरे हैं या गिरिके स्थानक कैयक उज्ज्वल कैयक नील कैयक आरक्त दीखे हैं अर अत्यंत सुन्दर सोहै हैं सूर्यको किरण गिरिके शिखिरके वृक्ष निके अग्रभाग विपे आय पडे हैं अर पत्र पवनकरि संचल है सो अत्यंत सोहे हैं। हे सुबुद्धिरूपिणि ! या ननमें कहूँ इक वृक्ष फलनिके भार कर नम्रीभत होय रहे हैं पर कहूं इक नाना रंगके जे पुष्प तेई भए पट तिनकर शोभित हैं अर कहं इक मधर शब्द बोलनहारे पक्षी तिनकरि शोभित हैं । हे प्रिये ! या पर्वतते यह क्रौंचवा नदी जगत प्रसिद्ध निकसी है जैसे जिनराजके मुखते जिनवाणी निकसे. या नदीका जल ऐसा मिष्ट है जैसी तेरी चेष्टा मिष्ट है, हे मुकेशी ! या नदीमें पवन कर उठे हैं लहर अर किनारेके वनिके
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