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पग-पुराण अगर कुन्द पद्माक वृक्ष कुरंज बृक्ष पारिजात वृक्ष मिजन्यां केतकी केवडा महुवा कदली खैर मद. नवृक्ष नींबू खजूर छुहारे चारोली नारंगी विजौरा दाडिम नारयल हरडे केथ किरमाला विदारीकं. द अगथिया करंज कटालीकूट अजमोद कौंच कंकोल मिर्च लवंग इलायची जायफल जावित्री चव्य चित्रक सुपारी तांबूलों की बेलि रक्तचन्दन वेत श्यामलता मीठासींगी हरिद्रा भरलू सहिजडा कुडा वृक्ष पद्माख पिस्ता मौलश्री बीलवृक्ष द्राक्षा विदाम शाल्मलि इत्यादि अनेक जातिके वृक्ष तिनकर शोभित है अर स्वयमेव उपजे नाना प्रकारके थान्य अर महारसके भरे फल अर पौडे सांठे इत्यादि अनेक वस्तुनिकर वह वन पूर्ण नाना प्रकारकेवृक्ष नानाप्रकार की घेल नाना प्रकारके फल फूल तिनकर वन अति सुन्दर मानो दूजा नन्दन वन ही है सो शीतल मन्द सुगन्ध पवन कर कोमल कोंपल हालें , सो ऐसा सो है मानों वह वन रामके प्राइवे कर हर्ष कर नृत्य कर है पर सुगन्ध पवन कर उठी जो पुष्पकी रज सो इनके अंगसे आय लगे सो मानों अटवी मालिंगन ही करे है अर भ्रमर गुंजार करे हैं सो मानो श्रीरामके पधारने कर प्रसन्न भयावन गान ही करे है, अर महा मनोज्ञ गिनिके नीझरनिके छोटेनिके उछरिवेके शब्द कर मानों हंसे ही है अर भैरुम जातिके पक्षी तथा हम सारिस कोयल मयूर लिचांड कुरुचि सूवा मैना कपोत भारद्वाज इत्यादि अनेक पक्षिनिके ऊचे शब्द होय रहे हैं सो मानों श्रीराम लक्ष्मण सीताके प्राइवेका प्रादर ही करे हैं अर मानों वे पक्षी कोमल बाणीकर ऐसा वचन कहे हैं कि महाराज! भले ही यहां भावो भर सरोवरनिमें सफेद श्याम अरुण कमल फूल रहे हैं सो मानों श्रीरामके देखवेको कौतूहलते कमलरूप नेत्रनिकर देखने को प्रवर्ते हैं अर फलनिके भारकर नम्रीभूत जो वृक्ष सो मानों रामको नमे हैं अर सुगन्ध पवन चाले है सो मानों वह वन रामके प्रायवेसे श्रीनन्दके स्वांस लेय है, सो श्रीराम सुमेरुके सौमनस वन समान वनको देखकर जानकी कहते भए-कैसी है जानकी? फूले कमल समान हैं नेत्र जाके । पति कहे है-हे प्रिये ! देखो यह वृक्ष बेलनिम् लिपटे पुष्पनिके गुच्छनिकर मण्डित मानो गृहस्थ समान ही भासे हैं अर प्रियंगुकी बेल मौलसरीके वृक्ष लगी कैसी शोभे है जैसी जीव दया जिनधर्मसू एकताको थरे सोहै, अर यह माधवीलता पवनकर चलायमान जे पल्लव तिन कर समीपके वृक्षनिकों स्पर्श हैं जैसे विद्या विनयवानको स्पर्श है अर हे पतिब्र. ते ! यह वनका हाथी मदकर आल परूप हैं नेत्र जाके सो हथिनीके अनुरागका प्रेरा कमलनिके वनमें प्रवेश करे है जैसे अविद्या कहिये मिथ्यापरणति ताका प्रेरा अज्ञानी जीव विषयवासनाविषै प्रवेश कर, कैपा है कम ननिका वन, विकसि रहे जे कमलदल तिनपर भ्रमर गंजार करे हैं और हे दृढव्रते, इंद्रनीलमणि समान श्यामवर्ण सर्प बिलते निकसकर मयूरको देख भाग कर पीछे विलमें घुप है जैसे बिवेकसे काम भाग भवन में छिपे अर देखो सिंह केसरी महा सिंह साहसरूप चरित्र इस पर्वतकी गुफामें तिष्ठा हुता सी अपने रथ का नाद सुन निद्रा तज गुफाके द्वार प्राय निर्भय तिष्ठे है पर यह बघेरा क्रूर है मुख जाका गर्वका भरा मांजरे नेत्रनिका धारक मस्तक पर धरी है पूछ जाने नखनिकर वृक्ष की जडको कुचरे है पर मृगानिक समूह दुवके अंकुर तिनके चरिबे को चतुर अपने बालकनिको बीचकर मृगीनि सहित गमन करे हैं सो नेवनिकर दरहीसे
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