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पद्म-पुराण
पुष्प जल में पडे हैं सो अति शोभित हैं। कैसी है नदी १ हंसनके समूह र कागनिके पटलन कर अति उज्ज्वल है अर ऊंचे शब्दकर युक्त है जल जाका, कहूं इक महा विकट पाषाणन के समूह तिनकर विषम है अर हजारा ग्राह मगर तिनकर अति भयंकर है अर कहूं इक अति वेग कर चला आवे है जलका जो प्रवाह ताकर दुर्निवार है जैसे महा मुनिके तपकी चेष्टा दुर्निवार है कहूं इक शीतल जल बहे है कहूं इक वेगरूप वहे हैं, कहूं इक काली शिला, कहूं इक श्वेत शिला तिनकी कांतिकर जल नील श्वेत होय रहा है मानों हलधर हरिका स्वरूप ही है, कहूं इक रक्त शिलानिके किरणकी समूह कर नदी आरक्त होय रही है जैसे सूर्यके उदयकर पूर्व दिशा आरक्त होय पर कहूं इक हरित पाषाणके समूह कर जलमें हरितता भासे है, सो सिवालकी शंका कर पक्षी पीछे जा रहे हैं । हे कांते ! यहां कमलनिके समूहमें मकरंदके लोभी भ्रमर निरंतर भ्रमण करे हैं, अर मकरंद की सुगंधा पाकर जल सुगंधमय हो रहा है, पर मकरंदके रंगनि कर जल सुरंग होय रहा है, परन्तु तिहारे शरीर की सुगन्धता समान मकरंदकी सुगन्ध नाहीं, अर तिहारे रंग समान मकरंदका रंग नाहीं, मानों तुम कमलवदनी कहावो हो सो तिहारे मुखकी सुगन्धताहीसे कमल सुगन्धित है और ये भ्रमर कमलनिकों तज तिहारे मुखकमल पर गुंजार कर रहे हैं अर या नदीका जल काहू ठौर पाताल समान गम्भीर है मानों तिहारे मनकासी गम्भीरताको घरे है अर कहूं इक नील कमलनि कर तिहारे नेत्रनकी छायाको घरे है अर यहां अनेक प्रकार के पक्षिनिके समूह नाना प्रकार क्रीडा करे हैं, जैसे राजपुत्र अनेक प्रकारकी क्रीडा करें । हे प्राणप्रिये ! या नदीके पुलनिको बालू रेत अति सुन्दर शोभित है as स्त्री सहित खग कहिए विद्याधर अथवा खग कहिए पक्षी आनन्द कर विवरे हैं । हे श्रखंडव्रते ! यह नदी अनेक विलासन को धरे समुद्रकी ओर चली जाय है जैसे उत्तम शीलकी धरण हारी राजनकी कन्या भरतारके परणवेको जांय, कैसे हैं भरतार ! महामनोहर गुण के प्रसिद्ध समूहको थरे शुभ चेष्टा कर युक्त जगतमें विख्यात हैं । हे दयारूपिनी ! इस नदी के किनारे के वृक्ष फल फूलन कर युक्त नाना प्रकार पक्षिन कर मंडित जलकी भरी काली घटा समान सघन शोभाको घरे हैं या भांति श्रीरामचन्द्रजी अति स्नेहके भरे वचनज नकसुतासू कहते भए, परम विचित्र अर्थको धरे तब वह पतित्रता अति हर्ष के समूह कर भरी पति प्रसन्न भई, परम
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दर कहती भई ।
हे करुणानिधे ! यह नदी निर्मल है जल जाका रमणीक हैं तरंग जाविष हंसादिक पक्षिनिके समूह कर सुन्दर है परन्तु जैना तिहारा चित्त निर्मल है तैया नदीका जल निर्मल नाहीं अर जैसे तुम सघन र सुगंध हो तैसा वन नाहीं अर जैसे तुम उच्च अर स्थिर हो तैसा गिरि नाहीं श्रर जिनका मन तुममें अनुरागी भया है तिनका मन और ठौर जाय नाहीं, या भांति राजसुता के अनेक शुभ वचन श्रीराम भाई सहित सुनकर अतिप्रसन्न होय याकी प्रशंसा करते भए । कैसे हैं रम १ रघुवंश रूप आकाशविषै चंद्रमा समान उद्योतकारी हैं नदीके तटपर मनोहर स्थल देख हा थिनिके रथसे उतरे । लचत्रण प्रथम ही नानास्वादको धरे सुन्दर मिष्टफल
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