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श्रर दोऊनका यश करते भए, दोऊनिपर पुष्प वर्षा करी अर एक चन्द्रवर्धन नामा विद्याधर ताकी आठ पुत्री सो आकाशमं विमानमें बैठी देख तिनको कौतूहल से अप्सरा पूछी भई तुभ देवि सारिखी कौन हो ? तिहारी लक्ष्मणविषै विशेष भक्ति दाखे है घर तुम सुन्दर सुकुमार शरीर हो तब वे लज्जासहित कहनी मई- तुमको कौतूहल है तो सुनो, जब सीताका स्वयंम्बर हुआ तब हमारा पिता हम सहित तहां आया था तहां लक्ष्मणको देख हमको देनी करी अर हमारा भी मन लक्ष्मण में मोहित भया, सो अब यह संग्राम में वर्ते है, न जानिये कहा होय ? यह मनुष्यनिमें चन्द्रमा समान प्राणनाथ है जो याकी दशा सो हमारी । ऐसें इनके मोहर शब्द सुनकर लक्ष्मण ऊपरको चौके, तब वे आठो ही कन्या इसको देखकर परम हर्षको प्राप्त भई अर कहती भई – हे नाथ ! सर्वथा तिहारा कार्य सिद्ध होहु तब लक्ष्मणको विघ्नवारणका उपाय सिद्धवाण याद आया, अर प्रसन्न बदन भया सिद्धवाण चलाय विघ्नवाण विलय किया पर आप महाप्रतापरूप युद्धको उद्यमी भया । जो जो शस्त्र रावण चलावे सो सो रामा पीर महा धीर शस्त्रनिमें प्रवीण छेद डारे, अर आप वायनिके समूहकर सत्र दिशा पूर्ण करों जैसे मेघपटल कर पर्वत आच्छादित होय, रावण बहुरूपिणी विद्याके वल कर रथक्रीडा करता भया । लक्ष्मणने रावण का एक सीस छेद, तब दोय सीन भए दोष छेदे तत्र चार भए र दोष जा छेदी तब चार भई अर चार छेदी तत्र आठ मई या भांति ज्यों ज्यों वेदीं त्यों त्यों दुगुनी सीस दुगु भए हजारों सिर पर हजारों भुला भई रावणके कर हाथी के सूंड समान भुज बन्धन कर शोभित अर सिर मुकुटोंकर मंडित तिनकर रणक्षेत्र पूर्ण किया मानों रावण रूप समुद्र महा भयंकर ताके हजारों सिर वेई भए वह श्रर हजारो भुला वेई मई तरंग तिन कर बढता भया श्रर रावणरूप मेघ जाके बाहुरूप विजुरी र प्रचण्ड हैं शब्द र सिर ही भए शिखर तिनकर सोहता भया । रावण अकेला ही महासेना समान भया अनेक मस्तक तिनके समूह जिन पर छत्र फिरें मानों यह विचार लक्ष्णने याहि बहुरूप किया जो आगे मैं अकेले अनि युद्ध किया अव या अकेले से कहा युद्ध करू तातें याहि बहुशरीर किया । रावण प्रज्वलित बनसमान भासता भया, रत्ननिके आभूषण पर शस्त्रनिकी किरण निके समूहकर प्रदीप्त रावण लक्ष्मणको हजारों भुजानिकर वाण शक्ति खड्ग वरछी सामान्य चक्र इत्यादि शस्त्रfoat वर्षा च्छादना भया सो सब बाण लक्ष्मणनं छेदे पर महाक्रोथ रूप होय सूर्य समान तेज रूप वाणनिकर रावणके आच्छादनेको उद्यमी भया । एक दोय तीन चार पांच छह दस बीस शत सहस्र मायामई रावणके सिर लक्ष्मणने छेदे हजारों सिर भुजा भूमिमें पडे सो रणभूमि उनकर आच्छादित भई ऐसी सोहे मानों सर्पनिके फणनि सहित कमलनिके वन हैं, भुजों सहित सिर पडे वे उल्कापातसे भायें। जेते रावणके बहुरूपिणी विद्या कर सिर पर भुज भए ते सब सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मणने छेदे, जैसे महामुनि कर्मनिके समूहको छेदे, रुधिरकी धारा निरंतर पडी तिनकर आकाशमें मानी सांझ फूली, दोय भुजाका धारक लक्ष्ना ताने रावण की असंख्यात भुना विफल करों, कैसे हैं लक्ष्मणा १. महा प्रभाकार युक्त हैं । रावण पसेत्र के
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