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________________ andrei प २२८ अब जिदग्धपुरका राजा जो कुंडलमंडित ताकी कथा सुनो- राजा दशरथका पिता अनरण्य अयोध्या में राज्य करे सो यह कुंडलमंडित पापी गढ़के बलकर अनरण्यके देशको विराथै जैसे कुशील पुरुष मर्यादा लोप करे तैसे यह ताकी प्रजा को बाथा करै । राजा अनरण्य बड़ा राजा ताके बहुत देश सो याने कैयक देश उजाडे जैसे दुर्जन गुणों को उजाडै अरं राजा के बहुत सामंत विराधे जैसे कवाई जीवनि के परिणाम विराधै अर योगी कषायका निग्रह करें तैसे याने राजासे fits कर अपने नाशका उपाय किया सो यद्यपि यह राजा अनरण्यके आगे रंक है तथापि गढ़ के बलसे पकड़ा न जाय जैसे मूसा पहाड़ के नीचे जो बिल तामैं बैठ जाय तब नाहर क्या करें सो राजा अनरण्यकी या चिंतामें रात दिन चैन न पडै श्रहारादिक शरीरको क्रिया अनादरसे करे तब राजाका बालचन्द्र नामा सेनापति सो राजाको वितावान् देख पूछता भया - हे नाथ ! आपकी व्याकुलताका कारण कहा ? जब राजाने कुंडलमंडितका वृत्तांत कहा तत्र बालचन्द्र ने राजा से कही आप निश्चित होवो उस पापी कुंडलमंडितको बांधकर आपके निकट ले आऊ । तच राजाने प्रपन्न होय बालचन्द्रको विदा किया । चतुरंग सेना ले बालचन्द्र सेनापति चढ़ा सो कॅडलमंडित मूर्ख चित्तोत्सवामें आसक्त चिच सर्व राजचेष्टारहित मह प्रमाद में लीन था, नहीं जाना है लोकका वृत्तांत जानें वह कुण्डलमण्डित नष्ट भया है उद्यम जाका सो बालचन्द्रने जाय कर क्रीडा मात्र जैसे मृगको बांधे वैसे बांध लिया पर उसके सर्व राज्यमें राजा अनरण्यका अधिकार किया र कुण्डलमण्डितको राजा अनरस्य के समीप लाया । बालचन्द्र सेनापतिने राजा 'अनरण्यका सर्व देश बाधारहित किया राजा सेनापति से बहुत हर्षित भया अर बहुत बधारथा और पारितोषिक दिये भर कुण्डलमण्डित अन्याय मार्गत राज्यसे भ्रष्ट भया हाथी घोड़े रथ पयादे सब गये, शरीर मात्र रह गया, पयादे फिरे सो महादुखी पृथ्वी पर अन करता खेदविन्न भैया, मनमें बहुत पछतावै जो मुझ अन्याय मार्गीन बड़ोंसे विरोध कर बुरा किया। एक दिन यह मुनियोंके आश्रम जाय आचार्यको नमस्कार कर भावसहित धर्मका भेद पूछता भया । गौतम स्वामी राजा श्रेकिर्ते कहे हैं—हे राजन् ! दुखी दरिद्री कुटुम्बरहित व्याधिकारी पीडित विनमें काहूँ एक भव्य जीवके धर्म बुद्धि उपजे है । ताने आचार्य से पूछा – हे भगवन् ! जाकी नि होनेकी शक्ति न होय सो गृहस्थाश्रम में कैसे धर्म का सावन करें ? आहार भय मैथुन परिग्रह यह चार संज्ञा तिनमें तत्पर यह जीव कैसे पापकरि छूटै, सो मैं सुना चाहूँ हूँ, आप कृपा कर कहो । सब गुरु कहते भए-धर्म जीवदयामयी है । ये सर्व प्राणी अपनी निंदा कर घर गुरुनि के पास आलोचना कर पापनतें छूटे हैं। अपना कल्याण चाहे है अर शुद्ध धर्मकी अभिलाषा करें को दिसाका कारण महापौर कैसे अप लहू अर वीर्य से उपजा ऐसा जो मांस ताका भक्षण सर्वथा डर है तिनके मांस कर जे अपने शरीरको पोपे हैं ते पापी भक्षण करें हैं और नित्य स्नान करें हैं विनका स्नान वृथा भेष भी वृथा है अर तीर्थयात्रा पर अनेक प्रकारके दान तज । सर्व ही संसारी जीव मरण निसंदेह नरकमें पडेंगे । जे मांसका हैं पर मूड मुडाय भेष लिया सो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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