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________________ पच-पुराण प्रवरावलीका पुत्र जो राजा कुण्डलमण्डित सो या स्त्रीको देख शोषण संपन उच्चाटन वशीकरण मोहन ये कामके पंच बाण इनकरि वेध्या गया ताने रात्रिको दूती पठाई सो चित्तोत्सवा को राजमन्दिरमें ले गई जैसे राजा सुमुखके मन्दिरपि दूती वनमालाको लेगई हुती सो कुण्डल मण्डित सुखसे रमै॥ अथानन्तर वह पिंगल काष्ठका भार लेकर घर आया सो सुन्दरीको न देखकर प्रति कटके समुद्रमें डूबा, विरहकरि महा दुखित भया, काहू जगह मुखको न पावै चक्रविधी आरूढ समान याका चित्त ब्याकुल भया, हरी गई है भार्या जाकी ऐसा जो यह दीन ब्राह्मण सो राजा पै गया और कहता भया-हे राजा, मेरी स्त्री तेरे राज में चोरी गई, जे दरिद्री आर्तिवंत भयमीत स्त्री वा पुरुष उनको राजा ही शरण हैं, तब राजा धूर्त पर ताके मन्त्री त सो सजाने मन्त्रीको बुलाय झूठमूठ कहा याकी स्त्री चोरी गई है ताहि पैदा करा, ढील मत करो तम एक सेषाने नेत्रोंकी सैन मार कर झूठ कहा । हे देव, में या ब्राह्मण की स्त्री पोदनापुरके मार्गमें पथिकनिके साथ जाती देखी सो आर्यिका ओंकै मध्य तप करणेको उद्यमी है ताते हे वाक्षस, तू ताहि लाया चाहे तो शीघ्र ही जा, ढील काहेको करै ताका भवार दीक्षा धरनेका समय कहां, वरुण है शरीर जाका अर महाश्रेष्ठ स्त्रीके गुणोंसे. पूर्ण है ऐसा जब झूठ कहा तक ग्रामय माढी कमर वांध शीघ्र बाकी ओर दौड़ा, जैसे तेज घोड़ा शीघ्र दौड़े सो पोदनापुरमें चैत्यालय तथा उपवनादि वनमें सर्वत्र दंदी, काहूं ठौर न देखी तब पाछा विदग्थनगर में पाया सो राजा की आज्ञातें कर मनुष्योंने गलहटा देय लष्टमुष्टि हार कर दूर किया, ब्राह्मण स्थानभ्रष्ट भयर क्लेश भोगा, अपमान लहा, मार खाई । एते दुःख भोग कर दूर देशान्तर उठ गया, सो प्रिया बिना याको किसी टौर सुख नहीं जैसे अग्विमें पड़ा सर्प सूसै वैसे यह रात दिन सूसता माया, विस्तीर्म कमलोंका वन याहि दावानल समान दीखे अर सरोवर अवगाह करता विरहरूप परिव से वले या भांति यह महा दुखी पृथ्वीविर्ष भ्रमण करै । एक दिन नगरसे दूर वनमें मुनि देखे। मनिका नाम आर्यगुप्ति बड़े आचार्य तिनके निकट जाय हाथ जोड़ नमस्कार कर धर्म अवस कर याको वैराग्य उपजा महा शान्तचित्त होय जिनेन्द्रके.मार्गकी प्रशंसा करता भया। मनमें विचार है-अहो यह जिनराजका मार्ग परम उत्कृष्ट है । मैं अन्धकारमें पड़ा हुता सो यहा बिनधर्म का उपदेश मेरे घटमें सूर्य समान प्रकाश करता भया मैं अब पापों का नाश करनहारा जो जिनशासन ताका शरण लेऊ, मेरा मन और तन विरहरूप अग्निमें जरै है सो मैं शीतल करू, तब गुरुकी आज्ञातें वैराग्यको पाय परिग्रहका त्याग कर दिगम्बरी दीक्षा धरता भया, पृथ्वी पर बिहार करता सर्व संगका परित्यागी नदी पर्वत मसान वन उपवनोंमें निवास करता तपकर शरीरका शोषण करता भया । जाके मनको वर्षाकालमें अति वर्षा भई तो भी खेद न उपजा और शीतकालमें शीत वायुकरि जाका शरीर न कांपा और ग्रीष्म ऋतुमें सूर्य की किरण कर व्याकुल न भया । याका मन विरहरूप अग्निकर जला हुता सो जिनवचनरूप जलकी तरंगकरि शीवल मया । वपकर शरीर अर्थ दग्ध वृक्षके समान होय गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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