________________
ग्यारहवां पर्व
११५
1
कर गुरु संग ही विहार किया । गुरुमें है धर्मराग जिसके अर वह ब्राह्मणी कुरमी शुद्ध है बुद्धि जिसकी, पाप कर्म से निवृत्त होय श्रावकके व्रत आदरे । जाना है रागादिकके वशमे संसारका परिभ्रमण जिसने कुल संग छोड़ा जिनराजकी मतिर होय भरताररहित अकेली महासती सिंहनी की नाई महावनविषै भ्रम, दसवें महिन पुत्रका जन्म हुआ तब इसको देखकर वह महानती ज्ञानक्रियाकी धरणहारी चित्तविषैती भई – यह पुत्र परिवारका सम्बन्ध महा अर्थात राजने कहा था सो सत्य है इसलिये मैं पुत्रका पसलका परित्यागकर आत्म कल्याण करू' अर यह पुत्र महा भाग्यवान है इनके रक्षक देव हैं इसने जे कर्म उपार्जे हैं तिनका फल अवश्य भोगेगा वनमें तथा समुद्रविषै अथवा वैरियोंके वश पड़ा जो प्राणी उसके पूर्वीपात कर्म ही रक्षा करे हैं अर कोऊ नहीं घर जिसकी आयु क्षीग होय है सो माता की गोवा ही मृयुके वश होय है, ये सर्व संसारी जीव क क आवन हैं। भगवान सिद्ध परमात्मा कर्मलं व हैं ऐसा जाना है तवज्ञान जिसने निगल बुकर बालकको वनतिजकर यह ब्रह्मणी विकल्परूप जो जड़ता तार रहित अलोकनगर आई जहां इन्द्रमालिनी नामा श्रार्या अनेक की गुरुनी थी तिनके समीप आर्या भई, सुन्दर हैं चेष्टा
जिसकी ।
अथानन्तर प्रकाशके मार्ग भनाना देव जाने थे सो पुण्पाधिकारी रुदनादिरहित उन्होंने वह बालक देवा, दयावान होय उठा लिया, बहुत आदरसे पाला, अनेक आगम अध्यात्मशास्त्र पढाए, सिद्धान्तका राज्य जानने लगा, महापंडित भया आकाशगामिनी विद्या सिद्धर्भा, यौवनको प्रत भया, श्रावकके व्रत धारे, शीलत्रतविषै अत्यन्त दृढ अपने माता पिता जे आर्थिक मुनि भए थे तिनका करें, कैसा है नारद १ सम्यग्दर्शनविषै तत्पर ग्यारमी प्रतिमाके कुल्लक श्रावक व्रत लेय विहार किया परन्तु कर्मके उदयसे तीव्र वैराग्य नही, न गृहस्थी न संयमी, धर्म प्रिय है अर कलह भी प्रिय है, बाचालपनेमें प्रीति है गायन विद्यामें प्रवीण राग सुनने में विशेष अनुरगवाला है मन जाका महा प्रभावयुक्त राजाओंकर पूजित जिसकी आज्ञा कोई लोप न सके, पुरुष स्त्रियोंमें सदा जिसका श्रति सम्मान है, अढाई द्वीपविषै मुनि जिन चैत्यालयों का दर्शन करें, सदा धरती ग्राकाशविषै भ्रमता ही रहे कौतूहल में लगी है दृष्टि जिसकी देवनकर वृद्धि पाई र देवन समान है महिमा जिसकी, पृथ्वीविषै देव ऋषि कहावै सदा सर्वत्र प्रसिद्ध विद्या प्रभावकरि किया है अद्भुत उद्योत जिसन ।
सो नारद विहार करते संते कदाचित मरुतके यज्ञकी भूमि ऊपर आय निकसे सो बहुत लोकनकी भीड देखी अर पशु बंधे देखे तब दयाभावकर संयुक्त होय यज्ञ धूमेमें उतरे तहां जायकर मरुतसे कहने लगे – हे राजा ! जीवनकी हिंसा दुर्गतिका ही द्वार है, तैने यह महा पापका कार्य क्यों रचा है ? तच मरुत कहता भया - यह सम्वर्त ब्राह्मण सर्व शास्त्रोंक अर्थविषै rete यज्ञका अधिकारी है यह सर्व जाने है इससे धर्मचर्चा करो । यज्ञकर उत्तम फल पाइए है । तब नारद यज्ञ करावनवारसे कहते भए - अहो मानव ! तैंने यह क्या आरम्भा है, यह कर्म
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org