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________________ पद्म-पुराण नामा ब्राह्मण यज्ञ करावे था तहां पुत्र दारादि सहित अनेक विप्र धनके अर्थी आये हुते और अनेक पशु होम निमित्त लाये उस समय अष्टम नारद पदवीधर बड़े पुरुष आकाश मार्ग आय निकसे, वहुत लोकनका समूह देख पाश्चर्य पाय चित्तमें चिंतवते भए कि यह नगर किसका है जौर यह दूर सेना किसकी पड़ी है अर नगरके समीप एते लोग किस कारण एकत्र भए हैं ऐसा मनमें विचार आशिसे भूमि पर उतरे ॥ __ अथानन्तर यह बात सुन राजा श्रेणिक गौतम स्वामीसे पूछते भए-हे भगवान ! यह नारद कौन है यामै कैसे २ गुण अर याकी उत्पत्ति किस भांति है तब गणधरदेव कहते भए हे श्रेणिक ! एक ब्रह्मरुचि नामा ब्राह्मण था ताके कुरमी नामा स्त्री सो ब्राह्मण तापसके व्रत धर बनमें जाय कन्दमूल फल भक्षण करे ब्राह्मणी भी संग रहे, ताकों गर्भ रह्या । तहां एक दिन मार्गके वशत कुछ संयमी महा मुनि आये । क्षण एक विराजे । ब्राह्मग अर ब्राह्मणी समीप आय बैठे । ब्राह्मणी गर्भिणी पांडुर है शरीर जिसका गर्भके भारकर दुखिा स्वास लेती मानों सर्पिणी ही है, उसको देखकर मुनिको दया उपजी । तिनमेंसे बड़े मुनि बोने देखो यह प्राणी कर्मके वशकर जगत विषै भ्रमै है धर्मकी बुद्धिकर कुटुम्बको तजकर संसार सागरसे तरणके अर्थ तो वनविष श्राया सो हे तापस ! तैने क्ण दुष्ट कर्म किया ? स्त्री गर्भवती करी । तेरेमें अर गृहस्थीमें कहा भेद है ? जैसे वमन किया जो आहार उसे मनुष्य न भषै तैसैं विवेकी पुरुष तजे हुए कामादिक विषयोंको फिर न आदरै। पर जो कोई भेष धरै अर म्त्रीका सेवन करै सो भयानक वनमें स्याली होय अनेक कुजन्म पानी नरक गिोदमें पडे है, जो कोई कुशील सेवता सर्व प्रारम्भोंमें प्रवरता मदोन्मत्त आपको तापसी मानै है सो अन्यन्त अज्ञानी है। यह काम सेवन ताकर दग्ध दुष्ट चित्त जो दुरात्मा प्रारम्भविषै प्रवर्ते उनके ता काहेका ? कुदृष्टिकर गर्वित भेषधारी विषयाभिलाषी जो कहै मैं तापसी हूं सो मिथ्यावानी है, काहेका ब्रती । सुखसों बैठना सुख सोवना, सुखमू लाहार सुख हार, अोढना निछावना आदि सब काज करै अर आपको सधु माने सो मूर्ख आपको ठग है । बलना जो घर तहांतें निकसै फिर उसमें कैसे प्रवेश नरै अर जैसे छिद्र पाय पिंजरेसे निकसा पक्षी भी फिर आपको कैसे जिसवर्षे डरै तैपे रिक्त होय कि कौन इन्द्रियों के वश "रै जो इन्द्रियोंके वश होय मा लोकविष निंदा योग्य है, आत्मकल्याणको न पावै है । सर्व परग्रहके त्यागी मुनियोंको एकाग्रचित्त कर एक आत्मा ही ध्याने योग्य है सो तुम सारिखे प्रारंभी तिन कर आत्मा कैस ध्याया जाय ? प्राणियों के परिग्रहके प्रसंगकर राग द्वेष उपजै है रागसं काम उपजै है, द्वषसे जीवसा होर है, काम क्राप पीड़ित जो जीव उसके मनको मोह पीडै है, मूर्ख के कृत्य अकृत्यमें विवेक रूप बुद्ध न होय जी अविवेकसे अशुभकर्म उपार्जे है सो घो. संसार सागरमें भ्रमे है । यह संसादिदोष जानकर जे पंडित है वे.शीघ्र हो वैरागी होय हैं आपकारि आपको जान विषय बासनासे निवृत्त हाय परमधामको पावै हैं । इस भांति परमार्थरूप उपदेशोंके वचनों से महामुनि संबोधा । तब ब्राह्मण ब्रह्मरूचि निरमोही होय मुनि भया, कुरमी नामा स्त्रीका त्याग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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