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पद्म-पुराण
तुम तिहारे स्थानक जावहु । ऐसा गरुडेंद्र मे कहकर चमरेंद्र मथुरा आए, मित्रके मरणकर कोपरूप मथुरा में वही उत्सव देखा जो मधु के समय हुता तत्र सुरेंद्रने विचारी - ये लोक महादुष्ट कृतघ्न हैं, देशका धनी पुत्रसहित मरगया है अर अन्याय बैठा है इनको शोक चाहिये वि हर्ष, जाके भुजाकी छाया पाय बहुत काल सुखसे बसे ता मधुकी मृत्युका दुःख इन भया? ये महाकृतघ्न हैं सो कृतघ्नका मुख न देखिये लोकनिकर शूरवीर सेवा योग्य. शूरवीरनिकर पण्डित सेवाको यो पंडित कौन जो पराया गुण जाने सो ये कृतघ्नमहामूर्ख हैं जैसा विचारकर मथुरा के लोकनिपर चमरेंद्र के प्या इन लोकोंका नाश करू । यह मथुरापुरी या देशसहित क्षय करू' । महाकोच के वश होय सुरेंद्र लोकनिको दुस्सह उपसर्ग करता भया, अनेक रोग लोगनिको लगाये, प्रल कालकी अग्नि समान निर्दयी होय लोवरूप वनको भाम करवेको उद्यमी भया, जो जहां ऊभा ता सो वहां ही मर गया पर बैठा हुआ सो बैठा ही रहा, सूता था सो सूना ही रहा, मरी पड़ी लोकको उपसर्ग देख मित्र कुल देवता के भय से शत्रुघ्न अयोध्या आयासो जलकर महावीर भाई आया बलभद्र नारायण अति हर्षित भये थर शत्रुघ्नकी माता सुप्रभा भगवानकी श्रद्भुत पूजा करावती भई, पर दुखी जीवनको अति करुणाकर र वर्षात्मा जीवनको अति विनयकर अनेक प्रकार दान देती भई, यद्यपि अयोध्या महा सुन्दर है स्वर्ण रत्ननिके मन्दिरनिकर मण्डित है कामधेनु समान सर्व कामना पूरणहारी देवपुरी समान पुरी है तथापि शत्रुघ्नका जीव मथुरा अति आसक्त सो अयोध्या में अनुरागी न होता भया जैसे कैक दिन सीता बिना राम उदास रहे तैसे शत्रुघ्न मथुरा विना अयोध्या में उदास रहै। जीवोंको सुन्दर वस्तुका संयोग स्वप्न समान क्षणभंगुर हैं परम दाहको उपजावै है ज्येष्ठ के सूने हू अधिक तापकारी है ॥ इति श्रीरत्रिषेणाचार्यविरचित महापद्म राण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी लोकनि असुरेन्द्रकृत उपसर्गका वर्णन करनेवाला नव्वेवां पर्व अथानन्तर राजा श्रेणिक गौतमस्वामी से पूछा भया- 'भगवान् ! कौन कारण कर "शत्रुघ्न मथुरा ही की याचता भया । अयोध्याहूतँ ताहि मथुरा का निवास अधिक में रुच', अनेक राजधानी स्वर्ग लोक समान सो न वांछी पर मथुरा ही वांछी सी मथुरा से कहा प्रीति, तब गौतमस्वामी ज्ञान के समुद्र सकल सभारूप नक्षत्रनिके चन्द्रमा कहते भये हे श्रेणिक ! इस शत्रुघ्न अनेक भव मथुरा में भये तातें याका मधु पुरीसे अधिक स्नेह भया । यह जीव कमनिके सम्बन्ध अनादि काल का संसार सागर में बसे है मो अनन्त मा धरै । यह शत्रुका का जीव अनन्त भत्र भ्रमण कर मथुरा में एक यमन देव नामा मनुष्य भया, महाक्रूर धर्मसे विमुख सो मर कर शूकर खर काग ये जन्म वर अज पुत्र भया सो अग्निमें जल सूत्रा, भैसा जलके लादने का भया सोबार भैंसा होय दुखसे मूसा नीच कुल में निर्धन मनुष्य भया, हे श्रेणिक ! महापापी तो नरक को प्राप्त होय है, पर पुण्यवान् जीव स्वर्गमें देव होय हैं कर शुभाशुभ मि श्रित कर मनुष्य होय हैं बहुरि यह कुलन्धरनामा ब्राह्मण भया, रूपवान् अर शीलरहित सो एक समय नगरका स्वामी दिग्ग्वजय निमित्त देशांतर गया ताकी ललिता नाम राणी महलके झरोसामें तिष्ठे श्री गोपायिनी इस दुराचारी को देख काम वागण कर वेधी गई यो गाहि महल में
भाषा वचनिकावि मथुराके पूर्ण भया ।। ६० ।।
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