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नम्नवा पा संयोग कर उाजे ने मोसे न्यारे हैं, देह त्याग के समय संसारी लोक भूमिका तथा तृणका सांथरा करे हैं सो सांधा नाहीं । यह जीव ही पाप बुद्धिरहिन होय तब अपना ही सायरा है। ऐसा नि: चार कर रजा मथुरे दोनों प्रकार के परिग्रह भावोंसे राजे अर हाथी की पीठ पर बैठा ही सिर के करा लाच करता भया, शरीर वावनि कर अतिमान है तापि महादुर्धर धीयको धर कर अध्यात्म योग, पारूढ होय कायाका ममन्य तजता भया, विशुद्ध है बुद्धि जाकी । तब शत्रुघ्न मधुकी परम शांत दशा देख नमस्कार करता भया घर कहता भया है मायो ! मो अपराधी का अपराध क्षमा को, देवनिती अपहारा मधु का संग्राम देखनेको पाई हती आकाशसे कल्पवृक्षनिके पुष्पोंको वा करनी भई मधुबा वीर रस अर शांत रस देख देव भी पार बर्यको प्राप्त भए । बहुरि मधु महा धीर एक क्षगम में समाथि मरण कर महा सुख के सागर में तीजे सात कुमार स्वर्गमें उत्कृष्ट देव भया कर शत्रन्न मधुकी स्तुति करता महा विदेशी मथुरा में प्रवेश करता भया जैसे हस्तिनागपुर में जयकुमार प्रवेश करता सोहता भया का शन मधुपुरी में प्रवेश करता सोहता मया । गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं—हे नराधिपति श्रेगिक ! प्रालियोंके या संमारने कमाके प्रसंग कर नाना अयस्था होय हैं तात उत्तम जन सदा अशुभ कर्म तजकर शुभकर्म करो जाके प्रभाव कर सर्य समान कांतिको प्राप्त होहु ॥ झाति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महा पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषावचनिकाविर्षे मधुका युद्ध अर
नैराग्य होनेका वर्णन करनेवाला नवासीवां पर्व पूर्ण भया ।। ८६ | अथानना र असुर कुमारोंक इन्द्र जो चमरेंद्र महाप्रचंड तिनका दीया जो त्रिशूलरत्न मधुके हुता ताके अधिष्ठाता देव त्रिशूल को लेकर चमरेंद्र के पास गए अनिखेद खिन्न महा लज्जावान होय मधुके मरणका वृत्तांत असुरेंद्रसे कहते भए । तिनकी मधुसे प्रतिमित्रता सो पातालसे निकस. कर महाक्रोधके भरे मथुग प्रायवेको उद्यमी भए ता समय गरुडेंद्र असुरेंद्र के निकट आये पर पूछने भए-हे देत्येंद्र ! कौन तरफ गमनको उद्यनी भए हो? तब चमरेंद्रने कही-जाने मेरा मित्र मधु मारा है ताहि कष्ट देवेको उद्यमी भया हूं तब गरुडेंद्रने कही कहा विशिल्याका माहात्म्य तुमने न गुना है ? तर चापरेंद्रने कही-वह अद्भत अवस्था विशिल्याकी कुमार अवस्थामें ही हुती अर अब तो निर्षिय भुजंगी समान है । जौलग विशिल्याने वासुदेवका आभय न किया हुता तौ नग वा ब ग के प्रधादतै असाधारण शक्ति हुनी, अब वह शक्ति विशिल्या नाही जे निरति. चार बालबर्य धारं तिनके गुण निकी महिमा काहियेमें न आवै, शीलके प्रसादकर सुर असुर विशावादि सब डरें, जौलग शीलरूप खगड को धारे तौलग सुबकर जीना न जाय महा दुर्जय है। अब विशिल्या पवित्रता है ब्रह्मचारिणी नाहीं त तैं बह शक्ति नाहीं। मद्य मांस मैथुन यह महा पाप हैं इनके सेवनसे शक्ति का नाश होय है जिनका व्रत शील नियमरूप कोट भग्न न भया तिनको का विघ्न करये समथ नाही, एक कालाग्नि नाम रुद्र महाभयंकर मा सो हे गरुडेंद्र ! तुम सुना ही हो पाना बहुरि वह स्त्रीस आसक्त होय नाशको प्राप्त भया तात विषयका सेवन विपसे भा विषय है, परन आश्चरका कारण एक अखंड ब्रह्मचर्य है। अब मैं मित्रके शत्रुमर जाऊंगा
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