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उनतालीस पर्व
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अनेक कुयोनि विषे जन्म मरण किए बहुरि बर्मानुयोगकर दरिद्रीके घर उपजा जब यह गर्भ में आयाः तव ही याकी माताने या के पिताको क्र र बचन कह कर कलह किया सो उदास होयः विदेश गया अर याका जन्म भया । बालक अवस्था हुती तब भीलनि देशके मनुष्य बन्द किये सो याकी माता भी बन्दीमें गई सर्व कुछम्बरहित यह परम दुखी भया कई एक दिन पीछे तापसी होय अज्ञान तप कर ज्योतिषी देवनि विर्ष अग्निप्रभ नामा देव भया अर एक समय अनन्तवीर्य केवलीको धर्म में निपुण जो शिष्य तिनने पूछा । कैसे हैं केवली ? चतुरनिकाय के देव पर विद्याधर तथा भूमिगोचरी तिनकरि सेवित, हे नाथ! मुनिसुव्रत नाथके मुक्ति गये पीछे तुम केवली भए अब तुम समान संसारका तारक कौन होयगा ? तब तिनने कही देशभूषण कुलभूषण होयेंगे। केवल ज्ञान अर केवल दर्शनके धरणहारे जगत्में सार जिनका उपदेश पायकर लोक संसार समुद्रको निरेंगे। ये वचन अग्निप्रेभने सुने सो सुकर अपने स्थानक गया । इन दिननिमें कुअवधि कर हमको इस पर्वतमें तिष्ठे जान 'अनन्तवीर्य केवलीका वचन मिथ्या करू' ऐसा गर्वधर पूर्व वैरकर उपद्रव करनेको आया सो तुमको बलभद्र नारायण जान भयकर भाज गया । हे राम! तुम चरमशरीरी तद्भव मोक्षगामी बलभद्र हो अर लक्ष्मण नारायण है उस सहित तुमने सेवा करी अर हमारे घातिया कर्मके क्षयसे केवलज्ञान उपजा, या प्रकार प्राणीनिके वैरका कारण सर्व बैगनुबन्ध है ऐसा जानकर जीवनिके पूर्वभव श्रवणकर हे प्राणी, रागद्वष वज निश्चल होवो ऐसे महापवित्र केवल के वचन सुन सुर नर असुर बारम्बार नमस्कार करते भये अर भव दुःखतें डरे अर गरुडेन्द्र परम हर्षित होय केवलीके चरणारविन्दको नमस्कार कर महा स्नेहकी दृष्टि विस्तारता लहलहाट करे हैं मणि कुण्डल जाके, रघुवंशमें उद्योत करणहारे जे राम तिनसों कहता भया-हे भव्योत्तम : तुम मुनिनिकी भक्ति करी सो मैं अति प्रसन्न भया । ये मेरे पूर्व भवर्क पुत्र हैं जो तुम मांगो सो मैं देहुं तब श्री घुथ क्षण एक विचार कर बोले तुम देवनिके स्वामी हो कभी हम आपदा पर तो हमें चितारियो साधुनिकी सेवाके प्रसादसे यह फल भया जो तुम सारिखोंसे मिलाप भया तब गरुडेन्द्रने कही तुम्हारा वचन मैं प्रमाण किया जब तुमको कार्य पड़ेगा तब मैं तिहारे निकट ही हूं ऐसा कहा तब अनेक देव मेघसी ध्वनि समान वादित्रनिके नाद करते भये । माधुनिके पूर्वभव सुन कई एक उत्तम मनुष्य मुनि भये, कईएक श्रावकके व्रत धारते भए । वे देशभूषण कुलभूषण केवली जगत् पूज्य सर्व संसारके दुःखसे रहित नगर ग्राम पर्वतादि सत्र स्थानविष विहारकर धर्मका उपदेश देते भये । यह दोऊ केवलिनिके पूर्व भवका चरित्र जे निर्मल स्वभावके धारक भव्यजीव श्रवण करें, वे सूर्य समान तेजस्वी पापरूप तिमिरको शीघ्र ही हरें। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविष देशभूषग कुलभूषण
केवलीका व्याख्यान वर्णन करनेगाला उनतालीसनां पर्न पूर्ण भया ।। ३६ ।।
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