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numan-ramma
पद्म पुराण शिष्यनिके समूह करि बेढा तहां राजा सुमुख ताके राणी रतिवती परम सुन्दरी सैंकडा राखिनिविष प्रधान अर ताके एक मदना नृत्यकारिणी मानो मदनकी पताका ही है, अति सुन्दररूप अद्भुत चेष्टाकी धरणहारी, ताने माधुदत्त मुनिके समीप सम्यक् दर्शन ग्रह्या, तबते कुगुरु कुदेव कुथर्मको तृणवत् जाने । ताके निकट एक दिन राजा कही यह अनुथर तापसी महातपका निवास है । तब मदनाने कही-हे नाथ ! अज्ञानीका कहा तप, लोकमें पाखण्ड रूप है। यह सुन कर राजाने क्रोध किया । तू तपस्वीकी निंदा करे है, तब वाने कही आप कोप मत करहु, थोडे दिनमें याकी चेष्टा दृष्टि पडेगी ऐसा कहकर घर जाय अपनी नागदत्ता नामा पुत्रीको सिखाया तापसीके आश्रम पठ ई सो वह देवांगना समान परम चेष्टाकी धरणहारी महा विभ्रमरूप तापसी को अपना शरीर दिखावती भई, सो याके अंग उपांग महा सुन्दर निरखकर अज्ञानी तापसी का मन मोति भया अर लोचन चलायमान भए जा अंगार नेत्र गये वहां ही मन बन्ध गया, काम बांणनिकर तापसी पीडित भया । व्याकुल होय देवांगना समन जो यह कन्या ताके समीप आय पूछता भया, तू कौन है और यहां कहा आई है, संध्याकालमें सब ही लघु युद्ध अपने स्था. नको तिष्ठे हैं तू महासुकुमार अकेली वनमें क्यों विचरे है, तब वह कन्या मधुर शब्दकरि याका मन हरती संती दीनताको लिये बोली, चंचल नील कमल समान हैं लोचन जाके, हे नाथ ! दया. वान् शरणागतप्रतिपाल आज मेरी माताने मोहि घरते निकास दई, सो अब मैं तिहारे भेषकर तिहारे स्थानक रहना चाहूं हूं, तुम मो सों कृपा करहु, रात दिन तिहारी सेवाकर मेरा यह लोक परलोक सुधरेगा । धर्म अर्थ काम इनमें कौनसा पदार्थ है जो तुममें न पाइये । परम निधान हो। मैं पुण्यके योगते तुम पागे, या भांति कन्याने कही तब याका मन अनुरागी जान विकल वासी कामकर प्रज्वलित बोला-हे भद्रे ! मैं कहा कृपा करू, तू कृपाकर प्रपन्न होहु, मैं जन्म पर्यत तेरी सेवा करूंगा। ऐसा कहकर हाथ चल यवेका उग्रम किया, तर कन्या अपने हाथ मने कर आदर सहित कहती भई-हे नाथ ! मैं कुमारी कन्या तुमको ऐसा करना उचित नहीं मेरी माताके घर जाय पूछो घर भी निकट ही है जैसी मोपर तिहारी करुणा भई है, तैसे मेरी माको प्रसन्न करहु वह तुमको देवेगी, तब जो इच्छा होय सो करियो, यह कन्याके वचन सुन मृढ तापसी व्याकुल होय तत्काल कन्याकी लार रात्रिको ताकी माताके पास आया, कामकर व्याकुल हैं सर्व इंद्रियां जाकी जैसे माता हाथी जलके सरोवरमें पैठे तैसे नृत्यकारिणीके घरमें प्रवेश किया । गौतमस्वामी राजा श्रेणिक कहे हैं -
.. हे राजन् ! कामकर ग्रसाहुवा प्राणी न स्पर्श न स्वादे न सूघे न देखे न सुने न जाने न डरे अर न लज्जा करे। महा मोहसे निरन्तर कष्टको प्राप्त होय है जैसे अन्धा प्राणी सर्पनिके मरे कूपमें पड़े तैसे कामान्ध जीव स्त्रीके विषयरूप विषमपमें पड़े सो वह तापसी नृत्यकारिणी के चरणमें लोट अति अधीन हो कन्याको याचता भया । ताने तापसीको बांध राखा राजाको समस्या हुती सो राजाने आय कर रात्रिको तापसी बंधा देखा । प्रभात तिरस्कारकरि निकास दिया सो अपमान कर लज्जायमान महा दुःखको धरता संता पृथिवीविष भ्रमणकर मूत्रा,
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