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________________ उनतालीसा पर्व अथानन्तर एक राजाकी पुत्री श्रीप्रभा लक्ष्मी समान सो रत्नरथने परणी ताकी अभिलाषा अनुधरके हुती सो रत्नरथते अनुथरका पूर्व जन्म तो वैर ही हुता बहुरि नया वैर उपजा सो अनुधर रत्नरथ की पृथ्वी उजाडने लगा । तब रत्नरथ अर विचित्ररथ दोऊ भाइनि अनुथर को युद्ध में जीत देशते निकास दिया । सो देशते निकासनेते पर पूर्व वैरते महाक्रोधको प्राप्त होय जटा अर बक्कलका धारी तापसी भया, विषवृक्ष समान कपाय विषका भरा, अर रत्नरथ विचित्ररथ महातेजस्वी चिरकाल राज्यकर मुनि होय तपकर स्वर्गविष देव भए । महासुख भोग तहांते चयकर सिद्धार्थ नगरके विषै राजा क्षेमं र गणी विमला तिनके महसुन्दर देशभूषण कुलभूषण नामा पुत्र होते भए । सो विद्या पढने के अर्थ घरमें उचित क्रीडा करते तिष्ठ, ता समय एक सागरघोष नामा पंडित अनेक देशनिमें भ्रमण करता आया सो राजा पंडितको बहुत आदर सुराखा अर ये दोऊ पुत्र पहनेको सौंपे, सो महाविनयकर संयुक्त सर्व कला सीखी, केवल एक विद्या-गुरुको जाने या विद्याको जाने और कुटुंबमें काहूको न जाने । तिनके एक विद्याभ्यास हीका कार्य, विद्यागुरुते अनेक विद्या पढ़ीं । सर्व कलाके पारगामी होय पितापै आए सो पिता इनको महाविद्वान सर्व कला निपुरा देखकर प्रसन्न भया। पंडितको मनवांछित दान दिया। यह कथा केवली रामसू कहै हैं, वे देशभूषण कुलभूषण हम हैं सो कुमार अवस्थामें हमने सुनी जो पिताने हमारे विवाह के अर्थ राजकन्या मंगाई हैं। यह वार्ता सुनकर परमविभूति घरे विनकी शोभा देखनेको नगर बाहिर जायवेके उद्यमी भए लो हमारी बहिन कमलोत्सवा कन्या झरोखेमें बैठी नगरी की शोभा देखती हुती सो हम तो विद्याके अभ्यासी कबहूं काहूको न देखा न जाना, हम न जाने यह हमारी बहिन है। अपनी मांग जान विकाररूप चित किया दोऊ माइनिके चित्त चले, दोऊ परस्पर मनविणे विवारते भए याहि मैं परण दजा भाई परणा चाहै तो ताहि मारू सो दोऊके चित्तविणे विकार भाव अर निर्दई भाव भया। ताही समय बन्दी जनके मुख ऐसा शब्द निकसा कि राजा क्षमंकर विमला राणीसहित जयवन्त होवे जाके दोनों पुत्र देवन समान अर यह झरोके विष बठी कमलोत्सबा इनकी बहिन सरस्वती समान दोऊ वीर महागुणवान अर बहिन महागुणवंती ऐसी सन्तान पुण्याधिकारिनिके ही होय है। जब यह वार्ता हमने सुनी तब मनविष हमने विचारी अहो मोह कर्मकी दुष्टता, जो हमारे बहिन की अभिलाषा उपजी यह संसार असार महा दुःखका भरा, हाय जहां ऐसा भाव उपजे पापके योग करि प्राणी नरक जांय वहां महा दुख भोगे, यह विच रकर हमारे ज्ञान उपजा सो वैराग्यको उद्यमी भए । तब माता पिता स्नेह व्याकुल भए । हान सबसे ममत्व तन दिगम्बरी दीक्षा पादरी, आकाशगामिनी ऋद्धि सिद्ध भई । नाना प्रक रके तीर्थादिमें बिहार किया तपही है धन जिनके अर माता पिता राजा क्षेमंकर अगले भी भवका पिता सो हमारे शोकरूप अग्निकर तप्तायमान हुवा मर्व आहार तज मरणको प्राप्त भया सो गरुडेन्द्र भया । भवनवासी देवनिविणे गरुड कुमार जातिके देव तिनका अधिपति महा सुन्दर महा पराक्रमी महालांचन नाम सो आयकर पहा देवनिकी समावि पेठा है पर वह अनुथर वापसी विहार करता कौमुदी नगरी गया अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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