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________________ ADHUKLALLAAAAAAA तिरेमठयां पा ४०७ हे देव ! तुम खेद मत करो। लक्ष्मण कुमार निश्चयसेती जीवेगा। देवगतनामा नगर तहां राजा शशिमंडल राणी सुप्रभा तिनका पुत्र मैं चंद्रनीतम सो एक दिन आकाशमें विचरता हुता सो राजा वेलाध्यक्षका पुत्र सहस्रविजा सो वासे मेरा यह वैर कि मैं वाकी मांग परणी सो वह मेरा शत्रु ताके अर मेरे महा युद्ध भया सो ताने चण्डरश नामा शक्ति मेरे लगाई सो मैं आकाशसे अयोध्याके महेन्द्रनामा उद्यान में पड़ा सो मोहि पडना देख अयोध्याके धनी राजा भरत आय ठोडे भए , शक्तिसे विदाग मेरा वक्षस्थल देख वे महा दयावान् उत्तम पुरुष जीवदाता मुझे चन्दनके जलकर छांटा सो शक्ति निकस गई मेग जैसा रूप हुना वैसा ही होय गया अर कुछ अधिक भया का नरेंद्र भरतने मोहि नवा जन्म दिया जाकर तिहारा दर्शन भया। यह वचन सुन श्रीरामचन्द्र पूछते भये कि-बा गन्धोदककी उत्पत्ति तू जान है तब ताने कहा-हे देव ! जानू हूँ. तुम सुन्गे, मैं राजा भरतको पूछी अर ताने मोहि कही जो यह हमारा समस्त देश रोगनिकर पीडित भया सो काहू इलाजसे अच्छा न होय, पृथिवी में कौन कौन रोग उपजे सो सुनो-उरोधात महादाहज्वर लालपरिश्रम सर्वशून अर छि दसोई फोरे इत्यादि अनेक रोग सर्वदेशके प्राणियोंको भए, मानों क्रोधकर रोगनिकी धाड ही देशविर्ष आई अर राजा द्रोण. मेघ प्रजासहित निरोग तब मैं ताको बुलाया अर कही-हे माम ! तुम जैसे नौरोग हो तैसा र्शघ्र मोहि अर मेरी प्रजाको करो। तब राजा द्रोणमेघने जाकी सुगनातासे दशो दिगा सुगन्ध होंय ता जलकर मोहि सींचा सो मैं चंगा भया र ता जलकर मेरा रा लोक भी चंगा और नगर तथा देश चंगा भया, सर्वरोग निवृत्त भए सो हजरों रोगोंकी करणहारी अन्यन्त दुम्सह वायु मर्म की भेदनहारी ता जलसे जाती रही तब मैंने द्रोणमेघको पूछा यह जल क का है जाकर सर्व रोगका विनाश होय तर द्रोणमेघने कही-हे राजन् ! मेर विशिल्यानामः पुत्री सर्व विद्यामे प्रवीण महागुणवती सो जब गर्भविष आई तब मेरे देशरिष अनेक व्याधि हुतीं सो पुत्रीके गर्भविष आवते ही सर्व रोग गए, पुत्री जिनशासनविर्ष प्रवीण है भगवानकी पूजावि तत्पर है सर्व कु म्ब की पूजनीक है ताके स्नानका यह जल है ताके शरीरकी सुगन्थत से जल महा सुगन्ध है, क्षणमात्र में सर्व रोगका विनाश करै है । ये वचन द्रोण मेघके सुनकर मैं अचिरजकों प्राप्त भया ताके नगरविष जाय ताकी पुत्रीकी स्तुति करी, अर नगर्गसे निकस सत्वहित नामा मुनिको प्रणाम कर पूछा-हे प्रभो ! द्रोण मेघकी पुत्री विशल्याका चरित्र कहो तब चार ज्ञानके धारक मुनि महावात्सल्यके धरणहारे कहते भए-हे भरत ! महाविदेहक्षेत्र स्वर्गसमान पुण्डरीक देश तहां त्रिभुवनानंद नामा नगर तहां चक्रवर नामा चक्रवर्ती राजा राज्य करें ताके पुत्री अनंगरा गुण ही हैं आभूषण जाके, स्त्रीविष ता समान अद्भु। रूप और का नाहीं सो एक प्रतिष्ठितपुर का धनी राजा पुनर्वसु विद्याधर चक्रवतीका सामन्त सी कन्याकी देख कामवाणकर पीडित हाय विमानमें बैठाय लेय गया सो चक्रवतीने क्रोधायमान होय किंकर भेजे सो तासू युद्ध करते भए ताका विमान चूर डारा तय ताने व्याकुल होय कन्या माकाश डारी सो शरद चन्द्रमाकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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