SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इकसठयां पणे दोऊ विद्या तिनको दई, श्रीरामको सिंहवाहिनी विद्या दई अर लक्ष्मण को गरुडवाहिनी विद्या दई तब यह दोऊ वीर विद्या लेय चिंतावेगका बहुत सन्मान कर जिनेन्द्रकी पूजा करते भए अर गरुडेंद्रकी बहुत प्रशंसा करी । वह देव इनको जलवाण अग्निवागा पवन वाण इत्यादि अनेक दिव्य शस्त्र देता भया अर चांद सूर्य सारिखे दोऊ भाइनिको छत्र दिए अर चमर दिए नाना प्रकारके रत्न दिये कांतिके समूह अर विद्युद्वक्र नाम गदा लक्ष्मण को दई अर हल मूसल दुष्टोंको भयके कारण रामको दिये । या भांति वह देव इनको देवोपनीत शस्त्र देय अर सैकड़ों आशिष देय अपने स्थानक गया । यह सर्व धर्मका फल जानो जो समयमें योग्य वस्तुकी प्राप्ति होय । विधिपूर्वक निर्दोष धर्म आराधा होय ताके ये अनुपम फल हैं जिनको पायकर दुख की निवृत्ति होय महा धीर्य के थनी आप कुशल रूप अर औरोंको कुशल गरें मनुष्य लोककी सम्पदाको कहा बात? पुण्याधिकारियों को देव लोककी वस्तु भी सुलभ होय है तातें निरंतर पुश्य करहु । अहो प्राणि हो! जो सुख चाहो तो सर्व प्राणियोको सुख देवहु जो धर्मके प्रसाद कर सूर्य समान तेजके धारक होहु अर आश्चर्यकारी वस्तुनिका संयोग होय ॥ इति श्रीरविणेणाचार्गगिरचि: महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा गचनिकागि राम लक्ष्मणको अनेक विद्याका लाभ गणन करनेवाला साठयां पर्व पूर्ण भया ।। ६० ॥ अथानन्तर राम लक्ष्मण दोऊ वीर तेजके मण्डलमें मध्यवर्ती लक्ष्पीके निवास श्रीवत्स लक्षणको घरे महामनोज्ञ कवच पहिरे सिंहवाहन गरुडवाहन पर चढे महामुन्दर सेनासागरके मध्य सिंहकी अर गरुड की वजा थरे परपक्षके क्षय करने को उद्यमी महा समर्थ सुभटोंके ईश्वर संग्राम भूमिके मध्य प्रवेश करते भए, आगे आगे लक्ष्मण चाल्या जाय है दिव्य छत्रके तेज कर सूर्य के तेजको आच्छादित करता संता हनूमान आदि बड़े बड़े योधा वानरवंशी तिनकर मण्डित वर्णनविष न श्रावै ऐसा देवनिकैसा रूप धारें सूर्यकोसी ज्योति लिये लक्ष्मणको विभीषणने देखा सो जगत्को आश्चर्य उपजावै ऐसे तेज कर मण्डित मो गरुडवाहनके प्रताप कर नागपासका बंधन भामण्डल सुग्रीवका दूर भया । गरुडके पंखनिकी पवन क्षीर सागरके जलको चोभ रूप करै ताकरि वे सर्प विलाय गये जैसे साधुनिके प्रतापकर कुभाव मिट जाय गरुडके पक्षनिकी कांतिकर लोक ऐसे होय गये प्रानो सुवणके रसकर निर्मापे हैं तब भामण्डल सुग्रीव नाग पाशसे छूट विश्रामको प्राप्त भये मानों सुख निद्रा लेय जागे, अधिक शोभते भए तव इनको देख श्रीवृक्ष प्रथादिक सब विद्याधर विस्मयको प्राप्त भए अर सब ही श्रीराम लक्षमणकी पूजा कर विनती करते भए-हे नाथ ! आज कीसी विभूति हम अब तक न देखी, वाहन शस्त्र सम्पदा छत्र ध्वजामें अद्भुत शोभा दीखे है । तर श्रीरामने जबसे अयोध्यासे चले तबसे लेग सर्व वृत्तांत कहा--कुलभूषण देशभूषणका उपसर्ग दूर किया सो सर वृत्तांत कहा । तिन्हों को केवल उपजा अर कहाँ हमसे गरुडेंद्र तुष्टायमान भया सो अवार उसका चितवन किया ताकरि यह विद्याकी प्रामि भई । तब वे यह कथा सुन परम हरेको प्राप्त भये पर कहते भए या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy