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एकसौएकवा :
५१६ कपट हैं अपने तेजकर सूर्यको जीते हैं पर कांतिकर चन्द्रमाको जीत हैं अर पराक्रमकर इन्द्रको अर गम्भीरताकर समुद्र को स्थिरताकर सुमेरुको अर क्षमाकर पृथिवीको अर सूरवीरताकर सिंहको चालकर हंसको जीते हैं अर महाजल में मकर ग्राह नकादिक जलचरोंसे क्रीडा करे हैं अर माते हाथियोंसे तथा सिंह अष्टापदोंसे क्रीडा करते खेद न गिनें पर महा सम्पगदृष्टि उत्तम स्वभाव अति उदार उज्ज्वल भाव जिनसे कोई युद्ध कर न सके महायुद्ध में उद्यमी जे कुमार मधु कैटभ सारिखे साहसी इन्द्रजीत मेघनाद सारिखे योधा जिनमार्गी गुरुसेवामें तत्पर जिनेश्वरकी कथामें रत जिनका नाम सुन शत्रुवों को त्रास उपजे । यह कथा गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते भए -हे राजन! ते दोनों वीर महाथीर गुणरूप रत्नके पर्वत महा ज्ञानवान लक्ष्मीवान शोभा कांति कीतिक निवास चित्तरूप माते हाथी के वशकरको अंकुश महाराजरूप मंदिरके दृढ स्तम्भ पृथिवीले सूर्य उता आचरण के थार ला अंकुश नरसति विचित कार्यके करणहारे पुंडरोक नगर में यथेष्ट देवोंकी न्याई रमें महा उत्तम पुरु। जिनके निकट जिनका तेज लख सूर्य भी लज्जा. वान् होय जैसे बलभद्र नारायण अयोध्यामें रमें तैसे यह पुण्डरीकपुरमें रमे हैं। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषाचनिकाबिौं लवणांकुश
पराक्रम वर्णन करनेवाला एकसौंवां पर्व पूर्ण भया ॥ १०० ॥
अथानन्तर अति उदार क्रियामें योग्य अति सुन्दर तिनको देख वज्रजंघ इनके परणायबेमें उद्यमी भया, तब अपनी शशिचूला नामा पुत्री लक्ष्मी राणीके उदर में उपजी सो बत्तीस कन्या सहित लवणकुमारको देनी विचारी अर अंकुश: कुमारका भी विवाह साथही करना सो अंकुश-योग्य कन्या दिवेको चिंतावान भया फिर मनमें विचारी पृथिवीपुर नगरका राजा पृथु ताके राणी अमृतवती ताकी पुत्री कनकमाला चन्द्रमाकी किरण समान निर्मल अपने रूपकर लक्ष्मीको जीते है यह मेरी पुत्री शशिचूला समान है यह विचार तापै दून भेजा. सो दूत विंच. क्षण पृथ्वीपुर जाय पृथुसे कही । जौलग दूत ने कन्यायाचनके शब्द न कहे तौलग इसका अति सननान किया अर जब याने याचनेका वृत्तांत कहा तब वह क्रोधायमान भया अर कहता भया--तू पराधीन है अर पराई कहाई कहे है । तुम दूतलोग जलकी धाराके समान हो, जा दिशा चलावे ताही दिशा चलो तुममें तेज नाही बुद्धि नाहीं, जो ऐसे पापके वचन कहै ताका निग्रह करू पर तू पराया प्रेरा यंत्र समान है यंत्री यंत्र बजाये है न्यों बाजै तातें तू हनिबे योग्य नाही, हे दूत १ कुल २ शील ३ धन ४ रूप ५ समानता ६ बल ७ वय ८ देश विद्या ये नव गुण वरके कहे हैं तिनमें कुल मुख्य है सो जिनका कुल ही न जानिए तिनको कन्या कैसे दीजिए ताते ऐसी निर्लज्ज बात क है सो राजा नीतिसे प्रतिकूल है सो कुमारी तो मैं न छुअर कु कहिए खोटी मारी कहिए मृत्यु सो छु । या भांति दूतको विदा .िया सो दुनने आयकर बज्रजंघको व्योरा कहा सो बज्रजंघ आपही चढ कर आधी दूर आय डेरा किये अर बडे पुरुषनिको भेज बहुरि पृथु से वन्या याची ताने न दई तब राजा बज्रजंत्र पृथुका देश उआडने लगा अर देशका रक्षक राजा व्याघ्ररथ ताहि युद्ध में जीति बांध लिया तब राजा पृथुने सुनी कि व्याघ्ररथको राजा बज्र.
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