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________________ ३२ 'पद्म पुराण ठारा कोटि घोड़े बत्तीस हजार मुकुन्द राजा पर इसने ही देश महासंपदाके भरे, छियानवे हजार रानी देवांगना समान, इत्यादिक चक्रवर्तिके विभवका कहां तक वर्णन करिए । पोदनापुर में दूसरी माताका पुत्र बाहुबली, सो भरतकी आज्ञा न मानते भए, कि हमभी ऋषभदेव के पुत्र हैं किसकी आज्ञा माने, तत्र भरत बाहुबलि पर चढ़े, सेनायुद्ध न ठहरा, दोऊ भाई परस्पर युद्ध करें यह ठहरा । तीन युद्ध थापे १ दृष्टियुद्ध, २ जलयुद्ध, अर ३ मल्लयुद्ध, तीनों ही युद्धों में बाहुबली जीते अर भरत हारे, तब भरतने पाहुती पर चक्र चलाया, वह उनके चरम शरीर पर घात न कर सका, लौटकर भरत के हाथ पर आया, भरत लज्जित भए, बाहुबली सर्व भोग त्याग कर वैरागी भए, एक वर्ष पर्यंत कायोत्सर्ग वर निश्चल तिष्ठे, शरीर बेलोंसे वेष्टित भया, सांपोंने बिल किए, एक वर्ष पीछे केवलज्ञान उपजा, भरतचक्रवर्तिने आय कर केवली की पूजा करी, बाहुबली केवली कुछ काल में निर्वाणको प्राप्त भए, अवर्षणीकालमें प्रथम मोक्षको गमन किया । भरत चक्रवर्ति निष्कंटक लै खंडका राज किया जिसके राज्यमें विद्याधरोंके समान सर्व सम्पदा के भरे अर देवलोक समान नगर महा विभूति कर मंडित हैं जिनमें देवों समान मनुष्य नाना प्रकार के वस्त्राभरण करि शोभायमान अनेक प्रकारकी शुभ चेष्टा कर रमते हैं, लोक भोगभूमि समान सुखी अर लोकपाल समान राजा अर मदन के निवासकी भूमि अप्सरा समान नारियां जैसे स्वर्गविष इन्द्र राज करे तैसे भरतने एक छत्र पृथिवीविषे राज किया, भरतके सुभद्रा राणी इंद्राणी समान भई जिनकी हजार देव सेवा करें, चक्रीके अनेक पुत्र भए तिनको पृथिवीका राज दिया इकार गौतम स्वामीने भरतका चरित्र श्रेणिक राजा से कहा || अवानन्तर श्रेणिने पूछा- 'हे प्रभो ! तीन वर्णकी उत्पत्ति तुमने कही सो मैने सुनी विकी उत्पत्ति सुना चाहें हूं सो कृपाकर कहो । गणधर देव जिनका हृदय जीवदयाकर कोमल है अर मद मत्सरकर रहित हैं, वे कहते भए कि—एक दिन भरतने अयोध्या के समीप भगवान का आगमन जान समोशरण में जाय बन्दना कर मुनिके आहारकी विधि पूछी। भगवान की श्राज्ञा भई कि मुनि तृष्णाकर रहित जितेन्द्री अनेक मासोपवास करें, जो पराए घर निर्दोष आहार लें, अंतराय पड़े तो भोजन न करें, प्राणरक्षा निमित्त निर्दोष आहार करें, अर धर्मके हेतु प्राणको राखें, अर मोदक हेतु उस धर्म को आचरें जिसमें किसी भी प्राणीको बाधा नाहीं । यह मुनिका धर्म सुन कर चक्रवर्ती विचारे हैं- 'अहो ! यह जैनका व्रत महा दुर्धर है, मुनि शरीर सेभी (निर्मत्व) तिष्ठे हैं तो अन्य वस्तुमें तो उनकी वांछा कैसे होय ? मुनि महा निर्गन्ध निर्लोभी सर्व जीवों की दयाविषै तत्पर हैं, मेरे विभूति बहुत है । मैं अणुव्रती श्रावकको भक्ति कर दूं पर दीन लोकोंको दया कर दूं यह श्रावक भी मुनिके लघु भ्राता हैं ऐसा विचार कर लोकों को भोजनको बुढाए अर व्रतियों की परीक्षा निमित्त प्रांगण में जौ धान उर्दू मूंगादि बोए तिनके अंकुर उगे सो अविवेकी लोक तो हरितकायको खूंदते आए अर जे विवेकी थे वे अंकुर जान खड़े होय रहे तिनको भरतने अंकुररहित जो मार्ग उसपर बुलाया पर व्रती जान बहुत आदर किया अर यज्ञोपवीत (जनेऊ) कंठ में डाला। इसे भोजन कराया वखाभरण दिये अर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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