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________________ सत्रहवां पर्व जाके नेत्र अनित्रासके कारण उगना जो प्रलयकालका सूर्य ता समान तेजको धरै दिशाओंके मू. हको रंग रूपकर वह सिंह छकी अगीको मस्तक ऊपर धरे नखसी अणीसे वि री है धरती जाने पहाडके तट समान उरस्थल पर प्रबल है जांब जाकी, मानों वह सिंह मृन्युका स्वरूप देय समान अनेक प्राणियोंका क्षय करणहारा अन्नकको भी अन्तक समान अग्निसे अध... जालित ऐसे डरावने सिंहको देखकर वनके सब जीव डरे । ताके नादकर सब गुफा नाज उठीको माग भयकर पहाड रोवने लगा अर याका निठुर शब्द बनके जीवोंके कानोंको एमा चुरा लग मानों भयानक मुद्गरका घात ही है अर जाके चिरनी सभान लाल नेत्र सो ताके भवहिण चित्र म कसे हो रहै और मदोन्मत्त हाथियों का मद जाता रहा, सबही पशुग। अपन अपा ताई पचावनेके लिए भयकर कंपायमान वृक्षोंके आसरे होय रहे । नारकी ध्वनि सुर जीन ऐसी प्रतिज्ञा करी जो उपसर्गसे मेर शरीर जाय तो मेरे अनशनवा है उपसर्ग टर में जा लेकर सखी बसन्तमाल खडग है हाथमें जाके कबहूं तो आकानाविध जाय कबहू भूमि र अाले अतिव्याकुल भई पक्षिानेकी नाई भ्रमै ये दोनों मह भयान कंगायमान है हृदय जिना तब गुफका निवासी जो मणिचूल नामो गंधर्वदेव तार तार्क रनचूल नामः स्त्री महादय वीत भ. हे देव देखो ये दोनों स्त्र सिंहसे महाभयभीत हैं और अति हिल है, हम इनकी रक्षा रोय. धर्वदेवको दया उपजी तत्काल विक्रिया कर अष्टापदका म्वरूप रच मोहिकार अपदका महा शब्द होता भवा सो अंजनी हृदय भगानका ध्यान धरती भई र मला सारनको नाई विलाप करें -हाय अंजना पहिले वो तू धनीके दुर्भागनी भई बहुर काह इककारीका आगमन भयः सो ताने दोको गर्भ रहा मो सासने विना समझे घर से निकाली बहुरे माता पिता ने भी न राख मोहा भयानक बनविणं पाई जहां पुण्यके योगत मुनिका दर्शन भपा, मुनिने धीर्य बंशय पूर्व भव कहे, धर्मोपदेश देय आकाशके मार्ग गए पर तू प्रमूके पथ जुफावि रही सो अब था हिके मुख में प्रवेश करेगी। मार, हाय राजपुत्री निर्जन वनविणे मरणको प्राशीष है व मावा दे दगाकर रक्षा करो। मुनिने कही थी कि तेरा सकल दुःख गया तो कहा मुरे के पचन यन्यथा होय हैं या भांति विलाप करती बसंतमाला हिंडोले भूल की एक स्थल लुरोके समीप पावै, पाषेष बाहिर जावे। ___ अथानन्तर वह गुफाका गंधर्वदेव जो अष्टापदका स्वरूप पर आया हुता ताने सिंडके पंजों की . दीनी तब सिंह भागा भर अष्टापद भी सिंहको भगय र निजस्थान हो गया समसमा नहि और अष्टा पदके युद्धका चरित्र देख बसंतमाना गुफामें अंजनी सुन्दरीके समीर आई, पल्लाबों से भी अति कोमल जो हाथ तिनसे विश्वासती भई, मानों नवा जन्म पाया. हितका संनापण करती भई सो एक वर्ष बरावर जाय है रात्री जिनकी ऐसी यह दोनों कभी तो कुम्म निर्दईपनेकी कथा कर, कभी धर्म कथा करें अष्टापदने सिंहको ऐसे भगाया जैसे हाथी को सिंह भगावै पर सर्पको गरुड भगावै बहुरि वह गंधर्व देव बहुत आनन्दरूप गावने लगा सा ऐसा गायता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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