________________
१७८
पभ-पुराण कर कर शुनि अंजनीसे कहते भए, मह करुणा भा कर अमृतवचन खिरते भए हे बालके तू कर्म के उदकर से दुखको प्राप्त भई ताते वहरि ऐमा निंद्य कर्म मत करना । संसार समुद्र के ताररणहारे जे जनेन्द्रदेव तिनकी भक्ति कर या पृथ्वी जे सुख हैं ते सव जिनभक्तिके प्रः पर्ते होय है। श्रसैं अपने भव सुनकर अंजनी विस्मयको प्राप्त भई अर अपने किए जे कर्म निनको निधती अति पश्चाताप करती भई । तब मुनिने कही हे पुत्री ! अब तू अपनी शक्ति प्रमाण नियम ले अर जिनधर्मका सेवन कर, यति व्रतियोंकी उपासना कर । तैंन असे कर्म शिए थे जो अधोगतिको जातो परंतु संयमश्री प्रार्याने कृपाकर धर्मका उपदेश दिया सो हस्तावलम्पन दे कुमति के पतनस चाई । अर यह बालक तेरे गर्मविष आया है सो महा कल्याण का भाजन है। या पुत्र के प्रभा ते तू परम सुख गावेगो, नेरा पुत्र अखण्डनीय है, देशनिकरि जीता न जाय । अब थोडे ही निमें तेरा भरतारतें मिलाप होयगा ताते हे भव्य ! तू अपने वित्त खेद मा करें, प्रमादरहित जो शुभ किया ना उद्यमी हो। ये मुनिके वचन सुन अंजनी अर बान्तभाला बहुा प्रसन्न भई अर बारम्बार मुनिको नमस्कार किया. फूल गए हैं नेत्र जिनके। मुनिराजने इलको धर्मोपदेश देय प्राशमार्ग विहार किया, मो निर्मल चित्त है जिनको ऐसे संयमियों को यही उचित है कि जो निजी स्थानक हो तहां नियोस करें नो अल्प ही रहै या प्रकार निज भर गुन अंजनी पाप कमी ते इरी और धर्म वा पावधान भई । वह गुफा मुनिके विराजवेसे पवित्र भई । सो वहां अंनी वमन्त बालासहित पुत्र की प्रसूति समय देखकर रही।
गौतम वाली राजा श्रेणिक कहे हैं -हे श्रेणिक ! अब वह महेंद्रकी पुत्री गुफामें रहै, बसंतमाला विद्यावलकार पूर्ण विद्याके प्रभावकरि खान पान आदि याके मनवांछित सर्व सामग्रं करे. अथानगर अंजना पतिव्रता पियारहित वनविष अकेली सो मानों सूर्य याका दुःख देख न सका सो अम्न होने लगा मानो याके दुःखत सूर्य की किरण मंद हो गई. सूर्य अस्त हो गा, पाड़ शिखर अर वृक्षोंके अग्रभागमें जो किरणोंका उद्योत रहा था सो भी संकोच लिया सन्ध्य कर ६ण एक आकाश मण्डल लाल होगया सो सानो अब क्रोधका भरा सिंह आवेगा, ताक लाल नेत्रनिकी ललाई फैली है बहुरि होनहार जो उप-र्ग ताकी प्रेरी शीघ्र ही अन्धक रक्षा म्वरूप रात्री प्रगः भई मानों साचसिनी ही रसातलसे निसरी है, पक्षी सन्ध्या समय गडन बनमें चिगनगाटक शब्दरहित वृक्षनिके अग्रभागपर तिष्ठे मानों रात्रीको श्याम स्वरूप डरावनी देख भरकर चुप होय रहे । शिवा कहिए स्यालिनी जिनके भयानक शब्द प्रबरते सो मानों होनहार उपसर्गके ढोज ही बने हैं।
अथानन्तर गुफाके मुख सिंह आया, कैसा है सिंह १.विदारे हैं हाथियोंके जे कुम्भस्थल, नि रुधिरकर लाल होरहे हैं केश जाके अर काल समान कर भृकुटीको धरै अर महा पिम न करता जिसके शब्दकर वन गुजार रहा है अर प्रलय कालकी अग्निकी जाला समान जीभो एखर प गुफासे काढता, कैसी है जीभ महाकु िल है अनेक प्राणियोंकी नाश करनहारी बहुरि जीव लोचनको जाकी अंकुश समान तीन दाद महा कुटिल हैद्र रघको भयंकर है पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org