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________________ famritai पर्व ४ तिमिरका दूर करणारा जीती है सूर्यकी कांति जाने सो मन वचन कायकर अंगीकार करो जातैं निर्मल पद पावो || इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत प्रथ, ताकी भाषावचनिकाविषै भरतके अर हाथी पूर्वभव वर्णन करनेवाला पचासीवां पर्व पूर्ण भया ॥ ८५ ॥ . अथानन्तर श्रीदेशभूषण केवलीके वचन महा पवित्र मोह अन्धकारके हरणारे संसार सागरके तारणहारे नानाप्रकारके दुखके नाशक उनमें भरत अर हाथीके अनेक भयका वर्णन सुनकर राम लक्ष्मण आदि सकल मव्यजन आश्चर्य को प्राप्त भए, सकल सभा चेष्टारहित चित्राम कैसी होय गई र भरत नरेंद्र देवेंद्र समान है प्रभा जाकी अविनाशी पदके अर्थ नि होकी है इच्छा जिसके गुरुवोंके चरण में नम्रीभूत है सीस जिसका महा शांतचित्त परम वैराग्यको प्राप्त हुआ । तत्काल उठकर हाथ जोड केवली को प्रणामकर महा मनोहर वचन कहता भवा हे नाथ, मैं संसारमें अनन्त काल भ्रमण करता नानाप्रकार कुयोनियो में संकट सहता दुखी भया अब मैं संसार भ्रमण से थका मुझे मुक्तिका कारण तिहारी दिगम्बरी दीचा देवो यह आशारूप चतुर्गति नदी मरणरूप उग्र तरंगको घरे उसमें मैं डूबू हूं सो मुझे हस्तावलम्बन दे निकासी ऐसा कह केवलीकी आज्ञा प्रमाण वजा है समस्त परिग्रह जिसने अपने हाथों से सिरके केश लोच किये परम सम्यक्त्वी महाव्रतको गीकारकर जिन दीदाधर दिगम्बर भया तब कवि देव धन्य धन्य शब्द कहते भए र कल्पवृक्षों के फूलों की वर्षा करते भए । हजार से अधिक राजा भरतके अनुरागसे राजऋद्धि तज जिनेन्द्री दीक्षा धरते भए अर कैयक अल्पशक्ति हुते ते अणुव्रतधर श्रावक भये, अर मात्रा के कई पुत्रका वैराग्य सुन सुन की वर्षा करती भई व्याकुलचित्त होय दौडी सो भूमिमें पडी, महामोहको प्राप्त भई पुत्रकी प्रीति कर मृतक समान होय गया है शरीर जाका सो चन्दनादिकके जलसे छांटी तो भी सचेत न भई, नीवेर विषै सचेत भई जैसे वत्स विना गाय पुकारे तैसे विलाप करती भई, हाय पुत्र ! महा विनयवान गुणनिकी खान मनको आल्हादका कारण तू कहां गया, हे अंगज ! मेरा अ'ग शोकके सागरमें डूबे हैं सो थांभ, तो मारिखे पुत्र विना मैं दुःखके सागर में मग्न शोककी भरी कैसे जीऊंगी ? हाय, हाय, यह कहा गया ? या मांति विलाप करती माता श्रीराम लक्ष्मणने स ंबोथकर विश्रामको प्राप्त करी, अति सुन्दर वचननिकर धीर्य बधाया हे मात, भरत महा विवेकी ज्ञानवान हैं तुम शोक तजों, हम कहा तिहारे पुत्र नाहीं, आज्ञाकारी किंकर हैं पर कौशल्या सुमित्रा सुप्रभाने बहुत संबोधा तब शोकरहित होय प्रतिबोधको प्राप्त भई । शुद्ध है मन जाका अपने अज्ञानकी बहुत निंदा करती भई, धिक्कर या स्त्री पर्याय यह पर्याय महा दोषनिकी खान है, अत्यन्त अशुचि वीभत्स नगर की मोरी समान अव ऐसा उपाय करू? जाकर स्त्री परियाय न धरू, स ंसार समुद्रको तिरु ं । यह महा ज्ञानवान सदाही जिनशासनकी भक्तिवन्त हुन अब महा वैराग्यको प्राप्त होय पृथिवीमती आर्थिका के समीप आर्यका भई, एक श्वेत वस्त्र धारा घर सर्व परिग्रह तज निर्मलसम्यक्त्वकू थारसी सर्व आरम्भ टारती भई । याके साथ तीनस आर्यका भई । यह विवेकिनी परिग्रह तंज कर वैराग्य थार ऐसी सोहती भई जैसी 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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