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पग-पुराण कलकरहित चन्द्रमाकी कला मेवपटलरहित सोहै। श्रीदशभूषण केवलीका उपदेश सुन अनेक मुनि भये अनेक आर्यका भई तिनकर पृथ्वी ऐमी सोहती भई जैसे कमलनिकर सरोवरी सोहै अर अनेक नर नारी पवित्र हैं चित्त जिनके तिन्होंने नानाप्रकारके नियम धर्मरूप श्रावक श्राविकाके ब्रत थारे, यह युक्त ही है जो सूर्य के प्रकाशर नेत्रवान् वस्तुका वलोकन करे ही करें। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ ताकी भाषा वचनिकाविणै भरत अर कैकयीका
नैराग्य वर्णन करनेवाला छियासीवां पर्व पूर्ण भया!॥८६॥ अथानन्तर रैलोक्यमण्डन हाथी अतिप्रशान्त चित्त केवलीके निकट श्रावकके व्रत धारता भया सम्यक दर्शनसंयुक्त महाज्ञानी शुभक्रियामें उद्यमी हाथी धर्मविष तत्पर होता भया, पंद्रह २ दिनके उपवास तथा मासोपवास करता भया, सूके पत्रनिकर प रणा करता भया, हाथी संसारसे भयभीत उत्तम चेष्टामें परायण लोकनिकर पूज्य महाविशुद्धताको धरे परिवीविष विहार करता भया। कभी पक्षोपवास कभी मामोपवासके शरणा प्रामादिकविष जाय तो श्रावक ताहि अतिभक्तिकर शुद्ध अन्न शुद्धजलकर पा णा कावते भए, क्षीण होय गया है शरीर जाका वैराग्य रूप खूटेसे बंधा मह उग्रतप करता भया। यमनियम रूप है अंकुश जाके बहुरि महाउग्रतपका करणहारा गज शनैः शनैः आहार का त्यागकर अन्त संलेषणा धर शरीर तज छठे स्वर्ग देव हो। भया, अनेक देवांगनाकर युक्त हारकुण्डलादिक आभूषणनिकर मण्डित पुण्यके प्रभावतें देवगति के सुख भोगता भया । छठ गहातें आया हुा अर छठेही स्वर्ग गया परम्पराय माक्ष पायेगा, भर भरत महामुनि महातप के धारक पृथिवीके गुरु निग्रंथ जाके शरीरका भी ममत्व नाही वे महा थीर जहां पिछिला दिन रहै ततां ही बैठ रहें जिनको एक स्थान न रहना, पवन सारिखे असंगी पथिवीसमान क्षमाको धरें, जलतमान निर्मल, अग्नि समान कर्म काष्ठके भस्म करनहारे अर आकाशं समान अलेप चार अापनामें उद्यम तेरह पकार चारित्र पालते विहार करते भए। निर्भमत्व स्नेहके बंधनते रहित मृगेंद्र सारिखे निर्भय समुद्र समान निश्चल यथाजातरूपके धारक सत्यका वस्त्र पहरे क्षमारूप खड्गको धर वाईन परीषहके जीतनहारे महापस्वी, समान हैं शत्रु मित्र जिनके अर समान है सुख दुःख जेके पर समान है तृण रत्न जिनके मा उत्कृष्ट मुन शास्त्रोक्त मार्ग चलते भए, तपके प्रभाकर अनेक ऋद्धि उपनीं । यूई समान तीच तृणकी सली पावोंमें चुभे हैं परन्तु ताकी कछु सुध नाही अर शत्रु के स्थानको उपसर्ग सहिवे निमित्त विहार करते भए, तपके संयमके प्रभावकर शुक्न ध्यान उपजा शुक्ल धानके बलकर मोहका नाशकर ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तराय कर्म हर लोकालोकको प्रकाश करणहारा केवलज्ञान प्रकट भगा हुरे अघातिया कर्म भी दरकर मिद्वपदको प्राप्त भए जहांत बहुटि संसारमें भ्रागा नाहीं, यह केकईके पुत्र भरत का चरित्र जो भक्ति कर पढे सुने सो सब क्लशसे रहित होग, यश कीनि बल विभूति आरोग्यताको पावै अर स्वग मोक्ष पावै । यह परम चरित्र महा उज्ज्मल श्रेष्ठ गुगनिका युक्त भव्य जीव सुनों जातें शीघ्र ही सूर्य अधिक तेजके धारक होहु । इति श्रीरक्ोिणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै भरतका
निर्वाण गमन वर्णन करनेवाला सतासीवां पर्ण पर्ण भया॥८७ ।।
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