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पध-पुराण
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सों काहूने सर्प दूर न किया मुनि खडे ही रहे । बहुरि कैयक दिननि में राजा ताही मार्ग गया ताही समय काहू भले मनुष्यने सांप काढा अर मुनिके पास वह बैठा हुता सो राजा वो मनुष्य पूछा जो मुनिके कंठते सांप कौनन काढा अर कब काढा, तब वाने कही-हे नरेंद्र ! काहू नरक. मामीने ध्यानारूढ मुनिके कंठ में मूवा सर्प डारा हुता, सो सर्प के संयोगते साधु का शरीर अतिखेदखिन्न भया । इनके तो कोई उपाय नाही, आज सर्प मैंने काढा है। तब राजा. मुनिको शांत स्वरूप कषायरहित जान प्रणामकर अपने स्थानक गया। ता दिनते मुनिनिकी भक्ति में अनुरागी भया पर काहूको उपद्रव न करे, तब यह वृत्तांत राणीने दंडिनके मुखसे सुना; जो राजा जिनधर्मका अनुरागी भया। तब पापिनीने क्रोधकर मुनिनिके मारवेका उपाय किया । जे दुष्ट जीव हैं ते अपने जीनेकाहू यत्न तज पराया अहित करें । सो पापिनीने गुरुसों कही तुम मुनिका रूपकर मेरे महलविणे आवहु अर विकार चेष्टा करहु तब वाने या भांति करी । सो राजा यह वृत्तांत जानकर मुनिनिस्कोप भया अर मंत्री आदि दुष्ट मिथ्यादृष्टि सदा मुनिनिकी निंदा करते, अर अन्य हू जे क्रूरकर्मी मुनिनिके अहितु हुते तिनने राजाको भरमाया सो पापी राजा मुनिनिको घानिविष पेलिवेकी आज्ञा करता भया । प्राचार्य सहित सर्व मुनि घानिविष पेले, एक साधु बहिभूमि गया, पीछे श्रावता हुता सो काहू दयावानने कही-अनेक मुनि पापी राजाने यंत्रविणे पेले हैं तुम भाग जावहु तुम्हारा शरीर धर्मका साधन है सो अपने शरीरकी रक्षा करहु । तब ह समाचार सुन संघके मरणके शोककर चुभी. है दुःखरूप शिला जाके, क्षण एक वज्रके स्तंभ समान निश्चल होय रहा, फिर न सहा जाय ऐसा क्लेशरूप भया सो मुनिरूप जो पर्वत ताकी समभावरूप गुफामक्रोधरूप केसरीसिंह निकसा जैसा आरक अशोक वृक्ष होय तैने मुनिके आरक्त नेत्र भए, तेजकर आकाश संध्याके रंगसमान होय गया। कोपकर तप्तायमान जो मुनि ताके सर्ग शरीरविणे पसेवकी बूंद प्रकट भई, फिर कालाग्नि समान प्रज्वलित अग्निपूतला निकसा सो धरती आकाश अग्निरूप होय गया, लोक हाहाकार करते मरणको प्राप्त भए । जैसे बांसनिका बन बले, तैसे देश भस्म होय गया, न राजा न अंतःपुर न ग्राम न पर्वत न नदी न वन न कोई प्राणी कछु हू देशविर्ष न बचा। महाज्ञान वैराग्यके योगकर बहुत दिननिवि मुनिने समभावरूप जो धन उपार्जा हुना सो तत्काल क्रोथरूप रिपुने हरा, दंडक देशका दंडक राजा पापके प्रभावकर प्रलय भया पर देश प्रलय मया सो अब यह दंडक वन कहावे है । कैरक दिन तो यहां तृग भी न उपजा फिर घनेकालविष मुनिनिका विहार भया तिनके प्रभावकर वृक्षादिक भए यह वन देशनिको हू भयंकर है, विद्याथरनिकी कहा बात ? सिंह व्याघ्र अद्यापदादि अनेक जीवनिस् भरा अर नानाप्रकारके पतिनिका शब्दरूप है अर अने प्रकारके धान्यसे पूर्ण है। वह राजा दंडक महाप्रबल शक्तिका धारक हुता सो अपराधकर नरक तिर्य गतिविगै बहुत काल भ्रमणकर यह गृद्ध पक्षी भया । अब याके पापकर्मकी नित्ति भई, ह को देख पूर्वभव स्मरण भया ऐसा जान जिन आज्ञा मान शरीर भोगविरक्त होय धर्मविष सावधान होना, परजीवनिका जो दृष्टांत है सो अपनी
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