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________________ इकतालीसपी पव ३२३ शांतभावकी उत्पत्तिका कारण है । या पक्षीको अपनी विपरीत चेष्टा पूर्वभवकी याद आई है सो कंपायमान हैं, पक्षीपर दयालु होय मुनि कहते भए - 1 हे भव्य ! अब तू भय मत करहु जा समयविषे जैसी होनी होय सो होय, रुदन काहे को करे है, होनहारके मेटवे समर्थ कोऊ नाहीं । अब तू विश्रामको पाय सुखी होय पश्चाताप तज, देख कहां यह वन अर कहां सीतासहित श्रीरामका आवना यर कहां हमारा वनचर्याका अवग्रह जो वनविषै श्रावकके आहार मिलेगा तो लेवेंगे अर कहां तेरा हमको देख प्रतिबोध होना, कर्मfast afa विचित्र है । कर्मनिकी विचित्रताते जगतकी विचित्रता है । हमने जो अनुभवा अर सुना देखा सो कहे हैं । पक्षीके प्रतिबोथवे के अर्थ रामका अभिप्राय जान सुगुप्तिमुनि अपना कर दूजा गुप्तिमुनि दोनोंक। वैराग्यका कारण कहते भए । वाराणसी नगरी तहां अचलनामा राजा विख्यात ताके राणी गिरदेवी गुणरूप रत्ननि कर शोभित ताके एक दिन त्रिगुप्तिनामा मुनि शुभ चेष्टाके धरनहारे आहार के अर्थ आए । सो राणीने परम श्रद्धाकर तिनको विधिपूर्वक आहार दिया। जब निरंतराय . आहार हो चुका तब राणीने मुनिको पूछा- हे नाथ ! यह मेरा गृहवास सफल होयगा या नाहीं । भावार्थ -- मेरे पुत्र होयगा या नाही, तत्र मुनि वचनगुप्तिभेद याके संदेह निवारणके अर्थ आज्ञा करी तेरे दोय पुत्र विवेकी होयगें सो हम दोय पुत्र त्रिगुप्ति मुनिकी आज्ञा भए पीछे भए ता सुगुप्ति र गुप्ति हमारे नाम माता पिताने राखे सो हम दोनों राजकुमार लक्ष्मीकर मंडित सर्व कलाके पारगामी लोकनिके प्यारे नानाप्रकारकी क्रीडा कर रमते घरविषै तिष्ठे । अथानन्तर एक और वृत्तांत भया गन्धवती नामा नगरी वहाके राजाका पुरोहित सोम ताके दो पुत्र एक सुकेतु दूजा अनिकेतु तिनविषं अति प्रीति सो सुकेतुका विवाह भया विवाकर यह चिन्ता भई कि कबहूं या स्त्रीके यागकर हम दोनों भाईनिमें जुदायगी न होष बहुरि शुभकर्मके योगसे सुकेतु प्रति बोध होय श्रनन्तवीर्य स्वामीके समीप मुनि भया अर लहुरा भाई अग्निकेतु भाईके बियोगकर अत्यंत दुखी होय बाराणसीविषै उग्र तापस भया तब बडा भाई सुकेतु जो मुनि भया हुता सो छोटे भाई को तापस भया जान सम्बोधिवेके अर्थ भायबेका उनी भया गुरूपै आज्ञा मांगी तब गुरूने कहा तू नाईको संबोधा चाहे हैं तो यह वृत्तान्त सुन तत्र याने कही हे नाथ ! वृत्तान्त कहो, तब गुरु कही वह तुमसा मत पक्षका बाद करेगा अर तुम्हारे वादके समय एक कन्या गंगाके तीर तीन स्त्रिनि सहित आवेगी । गौर है व जाका नानाप्रकारके वस्त्र पहिरे दिन के पिछले पहिर आवेगी तो इन चिन्होंकर जान, तू भाई ते कहियो या कन्याके कहा शुभ अशुभ होनगर है सो कहो । तब वह बिलपाहोय तोसे कहेगा मैं तो न जान तुम जानते हो तो कहो तब तू कहियो या पुर विषै एक प्रवर नामा श्रेष्ठी धनवन्त ताकी यह रुचिरा नामा पुत्री है सो आजसे तीसरे दिन मरणकर कम्बर ग्राम में बिलास नामा कन्याके पिता का मामा ताके बेरी होय मी तःहि न्याली मारेगा सो मरकर गाडर होयगी बहुरि भैंस, भैंस से ताही विलासके विधुरा नामा पुत्री होयगी यह वार्ता गुरू ने कही तव सुकेतु सुनकर गुरूको प्रणामकर तापसिनिके आश्रम आया जा भांति गुरू कही हुती वादी भांति तापससों कही भर ताही भांति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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