SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१४ पा-पुराण मई वह विधुरा नामा विलस को पुत्रीको प्रवरनामा श्रेष्ठी परणे लगा तब अग्निकेतु कही यह तेरी रुचिरा नामा पुत्री सो मर कर अजा गाडर भैंस हार तेरे मामाके पुत्री भई अब तू याहि परने सो उचित नाहीं पर विलासको भी सर्व वृत्तान्त कहा कन्याके पूर्व भव कहे सो सुनकर कन्याको जाति स्मरण भया कुम्मसे मोह तज सर्व सभा को कहती भई यह प्रवर मेरा पूर्वभवका पिता है सो ऐसा कह प्राधिका भई अर अग्निकेतु तापस मुनि भया यह वृत्तान्त सुनकर हम दोनों भाईनिने महावैराग्यरूप होय अनन्तवीर्य स्वामी के निकट जैनेन्द्रव्रत अंगीकार किये मोहके उदयकर प्राणिनिके भववनके भटकावने हारे अनेक अनाचार होय हैं सद्गुरूके प्रभावकर अनाचार का परिहार है। संसार असार है,माता पिता बांधव मित्र स्त्री संतानादिक तथा सुख दुःखही विनश्वर हैं। ऐसा सुनकर पक्षी भव दुख से भयभीत भपा धर्मग्रहणकी बांद्राकर यारम्बार शब्द करता भया तब गुरु कही, हे भद्र, भय मत करहु श्रावकके व्रत लेवो जाकर बहुरि दुखकी परम्परा न पावे, अब तू शांतिभाव थर किसी प्राणीको पीडा मत कर । अहिंसा प्रत धर, मृषा वाणी तज, सत्य व्रत श्रादर, पर वस्तु का ग्रहण तज परदारा तज तथा सर्वथा ब्रह्मचर्य भज तृष्णा तज सन्तोष भज रात्री भोजनका परिहार कर अभव आहारका परित्याग कर उत्तमचेष्टाका धारक हो अर त्रिकाल संध्याविषं जिनेन्द्रका ध्यान थर हे सुबुद्धि,उपवासादि तपकर नाना प्रकारके नियम अंगीकार कर प्रमादरहित होय इंद्रियां जीत,साधुनिकी भक्ति कर देव अरहंत गुरु निग्रंथ दया थमविणे निश्चय कर। या भांति मुनिने आज्ञा करी तब पक्षी वारम्बार, नमस्कारकर मुनिके निकट श्रावकके व्रत थारता भया सीताने जानी यह उत्तम श्रावक भया तब हर्षिा होय अपने हाथ से बहुत लढाया । ताहि विश्वास उपजाय दोऊ मुनि कहते भये---यह पक्षी तपस्त्री शांत चित्त भया कहां जायगा ? गहन वनविणे अनेक क्रूर जीव हैं या सम्यग्दृष्टी पक्षीकी तुम सदा रक्षाकरना। यह गुरुके वचन सुन सीता पक्षीके पालिवेरूप है चित्त जाका अनुग्रह कर राखा । राजा जनक की पुत्री करकमलकर विश्वासती संती कैसी सोभती भई जैसे गरुडकी माता गरुडको पालती शोभे अर श्रीराम लक्ष्मण पक्षीको जिन थी जान अतिधमानुराग करते भये अर मुनिनकी स्तुतिकर नमस्कार करते भये। दोनों चारण मुनि आकाशके मार्ग गये सों जाते कैसे शोभते भये मानो धर्मरूप समुद्रकी कल्लोल ही हैं। ___ अथानन्तर एक बनका हाथी मदोन्मत्त वनमें उपद्रव करता भया । ताको लक्ष्मण वश कर तापर चढ रामपै आए सो गजराज गिरिराज सारिखा ताहि देख राम प्रसन्म भए अर वह ज्ञानी पक्षी मुनिकी आज्ञा प्रमाण यथाविधि अणुव्रत पालता भया महाभाग्यके योगते राम लक्ष्मण सीताका ताने समीप पाया । इनके लार पृथिवीमें विहार करे, यह कथा गौतम स्वामी राजा श्रेणिकर कहे हैं-हे राजन् ! धर्मका माहात्म्य देखो याही जन्मविषै वह विरूप पक्षी अद्भुत रूप होय गया । प्रथम अवस्थाविषे अनेक मांसका आहारी दुर्गध निंद्य पक्षी सुगन्धके भरे कंचन कलस समान महासुगन्ध सुन्दर शरीर होय गया, कई इक अग्निकी शिखासमान प्रकाशमान अर कहूँ इक बैडूर्यमणि समान कहूँ इक स्वर्ण समान कहूं इक हरितमणिकी प्रभाको थरे शोभता भया । राम लक्ष्मण के समीप वह सुन्दर पक्षी श्रावकके व्रत धार महास्वाद संयुक्त भोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy