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________________ इकतालीसवा पर्व अग्रभागसे भूमिमें पडा सो महा मोटा पनी त के पडनेके शब्दकरि हाथी अर सिंहादि वनके जीव भयकर भाग गये अर सीता भी आकुलचित्त भई, देखो यह ढीठ पक्षी मुनिनिके चरण में कहां प्राय पडा, कठोर शब्दकर धन ही निवारा परंतु वह पक्षी मुनिनिके चरणनि के धोवनिमें प्राय पडा, चरणोदकके प्रभाव कर क्षणमात्रमें ताका शरीर रत्नोंकी राशिसमान नाना प्रकारके तेजकर मण्डित होय गया, पांख तो स्वर्णकी प्रभाको धरते भए, दोउ पांव वैडयंसमान होय गये पर देह नाना प्रकारके रत्ननिकी छविको धरता भया भर चूच मृगा समान आरक्त भई तव यह पक्षी आपको अर रूपको देख परम हर्षको प्राप्त भया मधुर नादकर नृत्य करनेको उद्यमी भया । देवनिके दुदुम्भी समान है नाद जाका नेत्रनिते आनन्दके अश्रुपात डारता शोभता भया जैसा मोर मेहके आगममें नृत्य करे तैसा मुनिके आगे नृत्य करता भया, महामुनि विधिपूर्वक पारलाकर वैडूर्यमणि समान शिलापर विराजे । पद्मराग मणि समान है नेत्र जाके ऐसा पदी पांख संकोच मुनिनिके पात्रों को प्रणाम कर आगे तिष्ठा तब श्रीराम फूले कमल समान हैं नेत्र जिनके, पक्षीको प्रकाश रूप देख आप परम आश्चर्यको प्राप्त भए ,साधुनिके चरणारबिंदको नमस्कार कर पूछते भए, कैसे हैं साधु अठाईस मूल गुण चौरासी लाख उत्तर गुण, वे ही हैं आभूषण जिनके, बारंबार पक्षीकी ओर निरख राम मुनिसों कहते भएहे भगवान ! यह पक्षी प्रथम अवस्थामें महाविरूप अंग हुता सो क्षणमात्रमें सुवर्ण अर रत्ननिके समूहकी छवि थरता भया यह अशुचि सर्व मांस का अाहारी दुष्ट गृद्धपक्षी आपके चरणनिके निकट तिष्ठ कर महा शांत भया सो कौन कारण ? तब सुगुप्तिनामा मुनि कहते भए-हे राजन् ! पूर्व इस स्थलमें दंडक नामा देश हुता जहां अनेक ग्राम नगर पट्टण संवाहण मटंब घोष खेट करबट द्रोणमुख हुते। वाडि कर युक्त सो ग्राम, कोट खाई दरबाजेनिकर मंडित सो नगर अर जहां रत्ननिकी खान सो पट्टण पर्वतके ऊपर सो संवाहन पर जाहि पांचसो ग्राम लागे सो मटंब अर गायनिके निवास गुवालनिक प्रावास सो घोष अर जाके आगे नदी सो खेट अर जाके पीछे पर्वत सो कर्वट पर समुद्रके समीप सो द्रोणमुख इत्यादि अनेक रचनाकर शोभित यहां कर्णकुंडल नामा नगर महामनोहर ताविषे या पक्षीका जीव दंडक नामा राजा हुता महाप्रतापी उदय थरे प्रचंड पराक्रम संयुक्त भग्न किये हैं शत्रुरूप कंटक जाने, महामानी बडी सेनाका स्वामी सो या मूढने अधर्मकी श्रद्धाकर पाप रूप मिथ्या शास्त्र सेया जैसे कोई घृाका अर्थी जलको मथे, याकी स्त्री दंडिनिकी सेवक हुती तिनसे अतिअनुरागिणी सो याके संगकर यह भी ताके मार्गको धरता भया । स्त्रिनिके वश हुवा पुरुष कहा २ न करे । एक दिवस यह नगरके बाहिर निकसा सो वन में कायोत्सर्ग धरे ध्यानारूढ मुनि देखे । तब या निर्दइने मुनिके कंठविणे मूवा सर्प डारा, कैसा हुता यह पापाण समान कठोर हुता विच जाका सो मुनि ध्यान धरे मानसों तिष्ठे अर यह प्रतिज्ञा करी, जो लग मेरे कंठते कोई सर्प दूर न करे तोलग मैं हलन चलन नाहीं करू, योगरूप ही रहं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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