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पन-पुराज समीप पर्वत, ऐस स्थानको देख दोऊ भाई वार्ता करते भए । यह वन अति सुन्दर अर नदी सुन्दर ऐसा कहकर रमणीक वृक्षकी छायामें सीता सहित तिष्ठे, क्षण एक तिष्ठकर तहाँकरम णीक स्थानक निरखकर जल क्रीडा करते भए । बहुरि महामिष्ट आरोग्य पक्क फल फूलनिके आहार बनाए, सुखकी है कथा जिनके, तहां रसोईके उपकरण अर वासण माटीके अर बांसनिके नाना प्रकार तत्काल बनाये, महा स्वादिप सुन्दर सुगंध आहार वनके धान सीताने तय्यार किये, भोजनके समय दोऊ वीर मुनिके प्रायवेके अभिलाषी द्वारपेक्षण को खडे, ता समय दो चारण मुनि आये। सुगुप्ति अर गुप्त हैं नाम तिनके ज्योति पटल कर संयुक्त है शरीर जिनका अर सुन्दर है दर्शन जिनका, भात श्रुत अवधि तीन ज्ञान विराजमान महब के धारक परन तपस्वी सकल वस्तुकी अभिलापारहित निर्मल है पित्त जिनके, मासोपवामी मह धीर वीर शुभ चेष्टाके धरणहारे, नत्रोके आनन्दके करता, शास्त्रोक्त प्राचार कर संयुक्त है शरीर जिनका, सो आहारको
आय । सो दूरने सनान देखे, तर मा होसे भरे हैं नेत्र जाके अर रोमांचकर संयुक्त है शरीर जाका, पतिसां कहती भई, हे नाथ हे नरश्रेष्ठ ! देखो ! देखो ! सपकर दुर्बल शरीर दिगम्बर कल्याणरूप चारण युगल आये। तब राम कही-हे प्रिये ! पंडित, सुन्दरमूर्ते! वे साधु कहां हैं हे रूप आभरण को धरणहारी ! धन्य है भाग्य तेरे तू। निग्रंथ युगल देखे, जिनके दशनसे जन्म जन्मके पाप जा हैं बक्तिवंत प्राणी के परम कल्याण होग, जव या भांति रामने कही तब सीता कहती भई । ये आये ये आये तब ही दोनों मुनि रामके दृष्टि परे, जाव दयाके पालक ईर्या समिति सहित समाधान रूप हैं मन जिनके तब, श्र रामने सीता सहित सन्मुख जाय नमस्कारकर मह भक्ति युक्त श्रद्धासहित मुनिनिको आहार दिया, आरणी मैं पोंका अर वनकी गायोंका दग्ध जर छुआरे गिरी दाख नाना प्रकार के वनके थान्य सुन्दर घी मिष्टान इत्यादि मनोहर वस्तु विधिपूर्वक तिते मुनिनिको पारणा करावते भये । वे मुनि भोजनके स्वादके लोलुपतासू रहित निरंतराय आहार करते भए । जब र मने अपनी स्त्री सहित भक्तिकर आहार दिया, तब पंचाश्चर्य भए रत्ननिकी वर्षा पुष्पवृष्टि शीतल मंद सुगंध पवन अर दुदुम्भी बाजे, जय जयकार शब्द सो जा समय वनमें रामके मुनिनिका आहार भया ता समय एक गृद्ध पक्षी पानी इच्छा कर पक्षपर तिष्ठे था सो अतिशयर संयुक्त मुनिनिको देख अपने पूर्वभव जानता भया कि कोई एक भव पहिले मैं मनुष्य हुता प्रमादी अविवेक कर जन्म निष्फल खोया, तप संयम न किया, धिक्कार मो मूहबुद्धि को अब मैं पापके उदयकरि खोटी योनिमें आय पडा, कहा उपाय करू, मोहि मनुष्य भवमें पापी जीवनि भरमाया, वे कहिवेके मित्र अर महा शत्रु सो उनके संग मैं धर्मरत्न तजा अर गुरुनिके वचन उलंव महापाप आचरा । मैं मोहकर अंध अज्ञान तिमिरकर धर्म न पहिचाना । अब अपने कर्म चितार उर में जलू हूँ। बहुत चितवनकर कहा दुखके निवारनेके अर्थ इन साधुनिका शरण गहूं ये सर्व सुखके दाता इन मेरे परम अर्थ की प्राप्ति निश्चयसेती होयगी । या भांति पूर्णभवके चितारनेते प्रथम तो परम शोकको प्राप्त भया हुता । बहुरि साधुनिके दर्शनते तत्काल परम हर्षित होय अपनी दोऊ पांख हलाय आमनि कर भरे हैं नेत्र जाके महा विनय कर मण्डित पची बचके
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