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________________ इकतालीसवां पर्व ३१६ रामके रचे रमणीक जिन मन्दिर तिनकी पंक्ति शोभती भई । तह पंच वर्णके प्रतिबिंब जिनेन्द्रके सर्व लक्षपनि कर संयुक्त सर्व लोकनि करि पूज्य विराजते भये । एक दिन श्रीराम कमललोचन लक्ष्मण कहते भये - हे भाई ! यहां अपने ताई दिन बहुत बीते श्रर सुखम् या गिरि पर रहे श्रीजिनेश्वरक्के चैत्यालय बनवाये पर पृथ्वीमें निर्मल कीर्ति भई अर या वंशस्थलपुर के राजा ने अपनी बहुत सेवा करी, अपने मन बहुत प्रसन्न किए अब यहांही रहें तो कार्यकी सिद्धि नाहीं और इन भोगनि कर मेरा मन प्रसन्न नाहीं, ये भोग रोगके समान हैं ऐसा ही जानता हूँ तथापि ये भोगनिके समूह मोहि क्षणमात्र नाहीं छोड़े हैं सो अब तक संयमका उदय नाहीं तबतक ये विना न प्राप्त होय हैं। या भवमें जो कर्म यह प्राणी करे है ताका फल पर भवमें भोगवे है र पूर्व उपार्जे जे कर्म तिनका फल वर्तमान कालविषै भोगे है या स्थल में निवास करते अपने सुख संपदा है परन्तु जे दिन जाय हैं वे फेर न आवें । नदोका वेग श्रर आयुके दिन श्रर यौवन गए वे फेर न आवें । तातें करनरवा नाम नदीके समीप दंडक वन सुनिये है वहां भूमिगोचरनिकी गम्यता नाहीं और वहां भरतकी आज्ञासाहू प्रवेश नाहीं वहां समुद्रके तट एक स्थान बनाय निवास करेंगे यह रामकी आज्ञा सुन लक्ष्मणने विनती करी— हे नाथ आप जो आज्ञा करोगे सोई होगा ऐसा विचार दोऊ वीर महाधीर इन्द्रसारिखे भोग भगि बंशगिरिते सीता सहित चाले । राजा सुरप्रभ वंशस्थलपुरका पति लार चाला सो दूरतक गया। आप विदा किया सो मुश्किल से पीछे बाहुडा महा शोकवन्त अपने नगर में माया । श्रीरामका विरह कौन कोनको शोकवन्त न करें । गौतमस्वामी राजा श्रेणिक कहे हैं - हे राजन् ! वह वंशगिरि बडा पर्वत जहां अनेक धातु सो रामचन्द्रने जिनि मंदिरनिकी पंक्ति कर महा शोभायमान किया कैसे हैं जिन मन्दिर, दिशानिके समूहको अपनी कांति करि प्रकाशरूप करे हैं ता गिरिपर श्रीरामने परम सुन्दर जिनमंदिर बनाए, सो वंशगिरि रामगिरि कहाया । या भांति पृथिवीपर प्रसिद्ध भया, रवि समान है प्रभा जाकी । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत मन्थ, ताकी भाषा बचनिकाबिषै रामगिरिका बरणन करनेवाला चालीसवां पर्व पूर्ण भयो ॥ ४० ॥ 11:01 अथानन्तर राजा अनरण्यके पोता दशरथके पुत्र राम लक्ष्मण सीतासहित दक्षिण दिशा के समुद्रको चाले, कैसे हैं दोऊ भाई ? महा सुख भोक्ता नगर ग्राम तिनकर भरे जे अनेक देश तिनको उलंघकर महा वनमें प्रवेश करते भए । जहां अनेक मृगनिके समूह हैं अर मार्ग सूझे नाहीं और उत्तम पुरुषनिकी वस्ती नाहीं । जहां विषम स्थानक सो भील भी न विचर सकें, नानाप्रकारके वृक्ष अर बेल तिनकरि भरा महा विषम प्रति अंधकार रूप जहां पर्वतनिकी गुफा गम्भीर निर्भर भरें हैं। ता वनविषै जानकी प्रसौंगते धीरे धीरे एक एक कोस रोज चाले दोऊ भाई निर्भय अनेक क्रीडा के करणहारे नरमदा नदी पहुंचे । जाके तट महा रमणीक प्रचुर तृणमिके समूह पर सघनता घरे महाछायाकारी अनेक वृक्ष फल पुष्पादिकरि शोभित भर याके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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