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________________ छितरा पर्व श्रथाननार लक्ष्मणके हाथमें महासुन्दर चक्ररत्न आया देख सुग्रीव भामण्डलादि विद्याधर के अधिपति अति हर्षित भए र परस्पर कहते भए – आगे भगवान अनन्तवीर्य केवलीने आज्ञा करी जो लक्ष्मण आठवां वासुदेव है पर राम आठवां वलदेव है सो यह महाज्योति चक्रपाणि भया अति उत्तम शरीरका धारक, याके बलका कौन वर्णन करसके, अर यह श्रीराम बलदेव जाके रथको महातेजवंत सिंह चलावें जाने राजा मगको पकडा अर हल मूसल महा रत्न देदीप्यमान जाके करमें सोहें । बलभद्र नारायण दोऊ भाई पुरुषोत्तम प्रगट भये, पुण्यकं प्रभावकर परमप्रेमके भरे लक्ष्मण के हाथमें सुदर्शन चक्रको देख राक्षसनिका अधिपति चित्तमें चितारे है जो भगवन अनन्तवीर्यने आज्ञा करी हुनीसोई भई । निश्चय सेती कर्मरूप पवनका प्रेरा यह समय आया, जाका छत्र देख विद्याधर डरते अर परकी महासेना भाग जाती परसेनाकी ध्वजा अर छत्र मेरे प्रतापसे बहे वहे फिरते अर हिमाचल विध्याचल है स्तन जा, समुद्र है वस्त्र जाके ऐसी पृथिवी मेरी दासी समान आज्ञाकारिणी हुती ऐसा मैं रावण सो रण में भूमिगोचरिनिने जीत्या यह अद्भुत बात है कष्टकी अवस्था श्राय प्राप्त भई, धिकार या राज्य लक्ष्मीको कुलटा स्त्री समान है चेष्टा जाकी, पूज्य पुरुष या पापिनीको तत्काल तजें यह इन्द्रियनिके भोग इन्द्रायण के फल समान इसका परिपाक विरन है अनन्त दुःख सम्बन्धके कारण साधुनिकर निन्द्य हैं, पृथिवी में उत्तम पुरुष भरत चक्रवत्र्त्यादि भये ते धन्य हैं जिन्होंने निःकंटक छहखंड पृथिवीका राज्य किया पर विषके मिले अन्नकी न्याई राज्यको तज जितेन्द्र व्रत धार रत्नत्रयका आराधन कर परम पदको प्राप्त भए । मैं रंक विषयाभिलाषी मोह बलवानने मोहि जीता। यह मोह संसार भ्रमणका कारण, धिक्कार मोहि जो मोहके वश होय ऐसी चेष्टा करी । रवण तो यह चिंतन करे हैर आया है चक्र जाके ऐसा जो लक्ष्मण महा तेजका थरक सो विभीषणकी ओर निरख रावण से कहता भया - हे विद्यावर ! अब हू छू न गया है, जानकीको लाय श्रीरामदेवको सोपदे अर यह वचन कह कि - श्रीराम के प्रसादकर जीवूं हूं, हमको तेरा कछु चाहिये नहीं, तेरी राज्य लक्ष्मी तेरे ही रहो । तब रावण मंदहास्यकर कहता भया - हे रंक ! तेरे वृथा गर्व उपजा है अवार ही अपना पराक्रम तोहि दिखावू हूं । हे अथगनर, मैं तोहि जा अवस्था दिखाऊ सो भोग, मैं रावण पृथी - पति विद्यावर तू भूमिगोचरी रंक, तव लक्ष्मण बोले बहुत कहिये कर कहा ? नारायण सर्वथा तेरा मारणहारा उपजा । तब रावणने कहा छात्रही नारायण हूजिये है तो जो तू चाहे सो क्यों न हो, इन्द्र हो, तू कुपुत्र पिताने दे से बाहर किया महा दुखी दलिद्री वनचारी भिखारी निर्लज्ज तेरी वासुदेव पदवी हमने जानी तेरे मनविषै मत्सर है सो मैं तेरे मनोरथं भंग करूंगा यह घेघली समान चक्र है ता कर तू है सा रंकोंकी यही रीति है खलिकाटूक पाय मनि उत्सव करें, बहुत कहिये कर कहा ? ये पापी विद्याधर तो मिले हैं तिनसहित अर या चक्रसहित बाहन सहित तेरा नाशकर तोहि पातालको प्राप्त करूंगा, ये रावणक वचन सुनकर लक्ष्मण ने ५६ Jain Education International ४४१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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