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________________ एकोपांच वा एवं कर सिद्धोंको साधुवोंको नमस्कार कर श्रीमुनिसुव्रत नाथ हरिवंशके तिलक बीसवां तीर्थकर जिनके तीर्थ में ये उपजे हैं तिनका ध्यान कर सर्व प्राणियोंके हितु आचार्य तिनको प्रणाम कर सर्व जीवों में क्षमा भाव कर जानकी कहती भई--मन कर वचनकर कायकर स्वप्न में भी राम बिना और पुरुप मैं न जाना जा में झूर कहती हूं तो यह अग्निकी ज्याला क्षणमात्रमें शुझे भस्म करियो जो मेरे पनित्रता भावमें अशुद्धता होय रान मियाय पर नर मनमे भी अभिलाषा होय तो हे वैश्वानर ! मुझे भस्म करियो जो, मैं भिध्यादर्शनो पापिनी व्यभिचारिणी हूं तो इस अग्निसे मेरा देह दाहको प्राप्त होने पर जो मैं महा सती पतित्रमा अणव्रतधारिणी श्राविका हूं तो मुझे भस्म न करियो, ऐ । कहकर नमोकार मंत्र जा सीता सती अग्निवापिकामें प्रवेश करती भई सो याके शीन के प्रभावसे अग्नि थी सो स्फटिक मणि सारिखा निर्मल शीतल जल हो गया मानों धरती को भेदकर यह वापिका पातालसे निकसी जलमें कमल फूल रहे हैं भ्रमर गुंजार करें है अग्नि की सामिग्री सब बिलाय गई न ईधन- न अंगार जलके झाग उठने लगे अर अति गोल गंभीर महा भयंकर भार उड़े लगे जैसी मृदंगकी धनि होय तैसे शब्द जन में होते भए जैसा क्षोभ को प्राप्त भया समुद्र गाजे तैपा शब्द वापीमें होता भया अर जल उछला पहले गोडों तक अया बहुरि कमर नक आया फिर निमिामात्र में छाती तक आया तब भूमिगोचरी डरे अर आकाशमें जे विद्याधर हुते तिनको भी विकल्प उपजा न जानिए क्या होय बहुरि वह जल लोगोंके कंठतक आया तव अति भय उपजा सिर ऊपर पानी चला तब लोग अति भयको प्राप्त भए ऊंची भुजाकर वस्त्र अर बालकों को उठाय पुकार करते भए-हें देवि ! हे लक्ष्मी ! हे सरस्वति ! हे कापा. णरूपिणी ! हे धर्मधुरंधरे हे मान्ये । हे प्राणीदयारूपिणी हमारी रक्षा करो हे महासाध्वी, मुनि समान निर्मल मनकी धरणहारी दया करो हे माता बचावो २ प्रसन्न होयो जब ऐसे वचन विह्वल जो लोक तिनके मुखसे निकसे तब माताकी दयासे जल थंभा लोक चचे. जलमें नाना मालिके ठोर ठोर कमल फूले जल साम्यताको प्राप्त भया जे भंवर उठे थे सो मिटे अर. भयंकर शब्द मिटे । वह जल जो उछला था सो: मानों वापीरूप बधू अपने तरंगरूप हस्तोंकर माताके चरण युगल स्पर्शती हुती । कैसा हैं चरण युगल ? कमलके गर्भसे हू अति कोमल हैं अर नखोंकी ज्योति कर देदीप्तमान हैं जलमें कमल फूले तिनकी सुगंधता कर भ्रमर गुंजार करें हैं सो मानों संगीत करे हैं अर क्रोच चकवा हस तिनके समूह शब्द करे हैं अति शोभा होय रही है पर मणि स्वर्णके सियाण बने तिनको जलके तरंगोंके समूह स्पर्श हैं अर जिनके तट ,मरकत. मणिकर सिमीपे अति सोहै हैं। ऐसे सरोवरके मध्य एक सहस्रदलका कमल कोमल विमल विस्तीर्ण प्रफुल्लित महाशुभ उसके मध्य देवनिने सिंहासन रचा रत्ननिकी किरणनिकर मंडित चन्द्र मंडल तुल्य निर्मल उसमें देवांगनाओंने सीताको पधराई अर सेवा करती भई सो सीता : सिंहासनपै, तिष्ठी. अति अद्भुत है उदय जिसका शची तुल्य सोहती भई अनेक देव चरणनिके तल पुष्पांजली चढाय धन्य २ शब्द करते भए आकाशमें कल्पवृक्षनिके पुष्पनिकी वृष्टि करते भए, अर नाना प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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