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एमीछह वा पर्व है अर कामके निवारवेका उपाय एक विवेक ही है जन्म जरा मरणका दुख संसारमें भयंकर है जिसका चितवन किए कष्ट उपजे यह कर्मजनित जगतका ठाठ अरहटके गन्त्रकी घडी समान है रीता भर जाय है, भरा रीता होय है, नीचला ऊपर ऊपरला नीच, कर यह शरीर दुर्गन्ध है गंत्र समान चलाया चले है विनाशीक है मोह कर्मके योगसे जीवका कायासे स्नेह है जलके, बुबुदा समान मनुष्य भवके उपजे सुख अमार जान घडे कुलके उपजे पुरुष विरक्त होय जिनराजका भाषा मार्ग अंगीकार करे हैं उत्साहरूप बषर पहिरे, निश्चय रूप तुरंगके अपवार ध्यानरूप खड्गके धारक धीर कर्मरूप शत्रुको विनाश निर्वाण रूप नगर लेय हैं, यह शरीर भिन्न अर मैं भिन्न ऐमा चितवन कर शीरका स्नेह नज हे मनु ! धर्म को करो धर्म समान अर नहीं और धर्मोसे मुनिका धर्म श्रेष्ठ है जिन महामुनियों के मुख दुख दोनों तुल्प. अपना अर पराया तुल्य जे राग द्वप रहित महा पुरुष हैं वे परम उत्कृष्ट शुक्ल ध्यानरूप अग्निसे कर्मरूप वनी दुख रूप दुष्टोसे भरी भस्म करें हैं।
। ये मुनिके वचन राजा श्रीचंद सुन बोधको प्राप्त भया, विषयानुभव सुम्ब से वैराग्य होय अपने ध्वजाति नामा पुत्र को राज्य देव समाधि गुप्त नाम मुनिा. समीप मुनि भया । महा विरक्त है मन जिसका, सम्यकत्व की भावनासे तीनों योग जे मन वचा काय तिनकी शुद्धता धरता मंता पांच समिति तीन गप्तिसे मंडित राग द्वेषमे रांगडाख रमत्र यरूप आभूषणोका धारक उत्तम क्षमा
आदि दशलक्षण धमकर मंडिा जिनशासन अनुर गी समस्त अंग पूर्वाग का पाठक समाधानरूप पंच महावाका धारक जाबोंका दानु सप्त भय हिा परमवीर्य का धारक बाईस परीषहका सहनहार, वेला तेला पक्ष मासादिक अनेक उपवासका करणहारा शुद्ध आहारका लेनहारा ध्यानाध्ययनमें तत्पर निर्मलतच अतींद्रिय भोगों की बांछाका त्यागी निदान बधनरहित महाशांत जिन शासन में है वात्सल्य जिसका, यति के प्राचारमें संघ के अनुग्रहमें तत्पर बालके अग्रभागके कोटिवे भाग हू नाहीं है परिग्रह जाके, स्नान का त्यागी दिगंवर, संमारके प्रबंधत रहिन, ग्रामके वनमें एक रात्रि अर नगरके बनमें पांच रात्रि रहनहारा गिरि गुफा गिरि शिखर नदीके पुलनि उद्यान इत्यादि प्रशस्त स्थानमें निवास करणहारा कायोत्सर्गका धारक देहतें ह निर्ममत्व निश्चल मौनी पंडित महातपस्वी इत्यादि गणनिकर पूर्ण कर्म पिंजरको जर्जराकर काल पाय श्रीचन्द्रमुनि रामचन्द्र का जीव पांचवें स्वर्ग इन्द्र भया, तहां लक्ष्मी कीर्ति कांति प्रताप का धारक देवनिका चूडामणि तीनलोकमें प्रसिद्ध परम ऋद्धकर युक्त महासुख भोगता भया। नंदनादिक वनमें सौधर्मादिक इन्द्र याकी संपदाको देख रहेहैं, या अवलोकनकी सबके बांछा रहै महा सुन्दर विमान मणि हेममई मोतिनकी झालरिनिकर मंडित, वामें बैठा विहार करै दिव्य स्त्रीनिके नेत्रों को उत्सवरूप महासुखने काल व्यतीत करता भया, श्रीचन्द्रका जीव ब्रोद्र ताकी महिमा, हे विभीषण ! वचनकर न कही जाय, केवलज्ञानगम्य है । यह जिनशासन अमोलिक परमरत्न उपमारहित त्रैलोक्यमें प्रकट है तथापि मृह न जाने। श्रीजिनेंद्र मुनींद्र पर जिनधर्म इनकी महिमा जानकर ह मूर्ख मिथ्या अभिमान कर गर्वित भये धर्मसेपराङ मुख रहें। जो अज्ञानी या लोकके सुखमें अनुरागी
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