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________________ AN २१६ पी-पुराण मण्डित पुत्र होता भया जब पुत्र गर्भमें आया तब ही माता स्वर्णकी कांतिको धरती भई ताते पुत्रका नाम हिरण्यगर्भ पृथ्वी पर प्रसिद्ध भया सो हिरण्यगर्भ ऐसा राजा भया मानो अपने गुणों कर बहुरि ऋषभदेवका समय प्रकट किया सो राजा हरिकी पुत्री अमृतवती महामनोहर ताहि साने परणी, राजा अपने मित्र बांधवनिकरि संयुक्त पूर्ण द्रव्यके स्वामी मानो स्वौके पर्वत ही हैं सर्व शास्त्रके पारगामी देवनि समान उत्कृष्ट भोग भोगते भये, एक समय राजा उदार है चिस जिनका दर्पण में मुख देखते हुने सो भ्रमर समान श्याम केशोंके मध्य एक सुफेद केश देखा, तब चित्तमें विचारते भए कि यह कालका दूत आया बलात्कार यह जरा शक्ति कांतिकी नाश करणहारी, ताकरि मेरे अंगोपांग शिथिल होवंगे यह चन्दनके वृक्ष समान मेरी काया अब जरा रूप अग्निसे जलकर अंगारतुल्य होयगी यह जरा छिद्र हेरे ही है सौ समय पाय पिशाचनीकी नाई मेरे शरीरमें प्रवेश कर. बाथा करेगी अर कालरूप सिंह चिरकालसे मेरे भक्षणका अभिलाषी हुता सो अब मेरे देहको बलात्कारसे भखेगा, धन्य है वह पुरुष जो कर्म भूमिको पायकर तरुण अवस्थामें ब्रा रूप जहाजविर्ष चढकर भव सागरको तिरें, ऐसा चितवन कर राणी अमृतवतीका पुत्र जो नघोष ताहि राजविष थापकर विमल मुनिके निकट दिगंबरी दीक्षा धरी। यह नघोष जबसे माताके गर्भमें आया तब हीसे कोई पापका वचन न कहै तातै नघोष कहिए पृथ्वी पर प्रसिद्ध हैं गुण जिनके, तिन गुणोंके पुंज, तिनके सिंहिका नाम राणी नाहि अयोध्या विष राख उत्तर दिशाक सामंतों की जी ने चढे, तब राजाको दूर गया जान दक्षिण दिशाके राजा बड़ी सेनाके स्वामी अयोध्या लेने को पाये, तब राणी सिंहिका महाप्रतापिनी बडी फौजसे चढ़ी। सो सर्व बैरियोंको रण में जीतकर अयोध्या दृढ़ थाना राख आप अपने सामन्तों को ले दक्षिण दिशा जीतनेको गई । कैसी है राणी ? शस्त्र विद्याका किया है अभ्यास जाने, प्रताप कर दक्षिण दिशाके सामन्तोंको जोतकर जय शब्द कर पूरित पाछे अयोध्या आई, अर राजा नवोष उत्तर दिशाको जीतकर आये सों स्त्रोका पराक्रम सुन कोषको प्राप्त भये, मन में विचारी जे कुलवंती स्त्री अखण्डित शीलकी पालनहारी हैं तिनमें एती ढीठता न चाहिए, ऐसा निश्चय कर राणी सिंहिकासे उदासचित्त भए, यह पतिव्रता महाशीलवंती पवित्र है चेष्टा जाकी पटराखीके पदसे दूर करी सो महा दरिद्रताको प्राप्त भई ॥ - अथानन्तर राजाके महादाहज्वरका विकार उपजा सो सर्व वैद्य यत्न करें पर तिनकी औषधि न लागे तब राणी सिंहिका राजाको रोग्रगस्त जानकर व्याकुलचिन भई अर अपनी शुद्धताके अर्थ यह पतिव्रता पुरोहित मन्त्री सामन्त सवनको बुलायकर पुरोहितके हाथ अपने हाथका जल दिया, अर कही कि यदि मैं मन वचन कायकर पतिव्रता हूँ तो या जलकर सींचा राजा दाहज्वरकररहित हो तब जल करि सींचते ही राजाका उबर मिट गया भर हिमविष मग्न जैसा शीतल होय गया, मुखसे ऐसे मनोहर शन्द कहता भया जैसे बीखाक शन्द होवें अर आकाशमें यह शब्द होते भए कि यह राणी सिंहिका पतिव्रता महाशीलवन्ती धन्य है धन्य है पर आकाशतें पुष्प वर्षा भई तब राजाने राणीको महाशीलवती जान बहुरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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