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छप्पनवा पर्ष आकाशको आच्छादते हुए रामके संग चाले सबमें अग्रेसर वानरवंशी भए । जहां रणक्षेत्र थापा है तहां गए, संग्रामभूमि बीस योजन चौडी है अर लंबाईका विस्तार विशेष है । वह युद्धभूमि मानों मृत्युकी भूमि है या सेनाके हाथी ग जे अर अश्व हींसे । अर विद्याधरनिके बाहन सिंह हैं तिनके शब्द हुए अर वादित्र बाजे तब सुनकर रावण अति हर्षको प्राप्त भया। मनमें विचारी बहुत दिनों में मेरे रणका उत्साह भया, समस्त सामन्तोंको आज्ञा दई जो युद्धके उद्यमी होवो सो समस्त ही सामंत आज्ञा प्रमाण आनन्दकर युद्धको उद्यमी भए । कैसा है रावण १ युद्धविणे है हर्षे जाको, जाने कबहु सामन्तुनिको अप्रसन्न न किया। सदा प्रसन्न ही राखे सो अब युद्धके समय सबही एक चित्त भए। भास्कर नामा पुर तथा पयोदपुर, कांचनपुर, व्योमपुर, वल्लमपुर, गंधर्वगीतपुर, शिवमंदिर, कंपनपुर, सूर्योदयपुर, अमृतपुर, शोभासिंहपुर, सत्यगीतपुर, लक्ष्मीगसिपुर, किन्भरपुर, बहुनागपुर, महाशैलपुर, चक्रपुर, स्वर्णपुर, सीमंतपुर, मलयानंदपुर, श्रीगृहपुर, श्री मनोहरपुर, रिपुंजयपुर शशिस्थानपुर, मातंडप्रभपुर, विशालपुर, ज्योतिदंडपुर, परिष्योधपुर, अश्वपुर, रत्नपुर इत्यादि अनेक नगरोंके स्वामी बड़े २ विद्याधर मंत्रिनि सहित महा प्रीतिके भरे रावणपै आए मो रावण राजावोंका सम्मान करता भया । जैसे इन्द्र देवोंका कर है। शस्त्रवाहन वक्तर आदि युदकी सामग्री सव राजावों को देता भया । चारहजार अक्षौहणी रावणके होती भई अर दो हजार अचौह गी रामके होती भई सो कौन भोति १ हजार अक्षौहणीदल तो भामण्डलका अर हजार सुग्रवादिका । या भांति सुग्रीव अर भामंडल ये दोऊ मुख्य अपने मंत्रियों सहित तिनलों मंत्र कर राम लक्ष्मण युद्धको उद्यमी भए । नेक वंशके उपजे अनेक आचरणके धरणहारे नाना जातियोंसे युक्त नानाप्रकार गुण क्रियासे प्रसिद्ध नानाप्रकार भाषाके बोलनहारे विद्याथर श्रीराम रावण भेले भए । गोतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं-हे राजन् ! पुण्यके प्रभावकरि मोटे पुरुषोंके बरी भी अपने मित्र होय हैं अर पुण्यहीनोंके चिरकालके सेवक भर अतिविश्वासके भाजन ते भी विनाश कालमें शत्रुरूप होय परणवे हैं। या असार संसारविणे जीवनिकी विचित्रगति जानकर यह चितवन करना कि- मेरे भाई सदा सुखदाई नहीं तथा मित्र बांधव सबही सुखदाई नाहीं कबहु मित्र शत्रु होजाय कबहु शत्रु मित्र होजाय ऐसे विवेकरूप सूर्यके उदयसे उरमें प्रकाशकर बुद्धिवंतों को सदा थर्मही चितवना। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै बिभीषणका रामसू
मिलाप अर भामंडलका आगमन वर्णन करनेवाला पचपनवां पर्ण पूर्ण भया ।। ५५॥
अथानन्तर राजा श्रेणिक गौतमस्वामीको पूछता भया-हे प्रभो ! अक्षौहिणीका परिमाण कहो तव गौतमका दूजा नाम इन्द्रभूत है सो इन्द्रभूत कहते भए-हे मगधाधिपति ! अक्षौहिणीका प्रमाण तुझे संक्षेपसे कहे हैं सो सुन--आगममें आठ भेद कहे है ते सुन, प्रथम भेद पत्ति दूजा भेद सेना तीजा भेद सेनामुख चौथा गुन्म पांचमा वाहिनी छठा पृतना सातवां चमू पाठवा मनीकिनी । सो अब इनके यथार्थ भेद सुन । एक रथ एक गज पांच पयादे तीन तुरंग इसका
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