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________________ पद्म पुराण जहां अप्सरा नृत्य करै हैं जो प्रभु स्वयंभू सर्वगति निर्मल त्रैलोक्यपूज्य जाका अन्त नहीं अनन्रारूप अनंत ज्ञान विराजमोन परमात्मा सिद्ध शिव आदिनाथ ऋषभ तिनकी कैलाश एक्त पर हम चलकर पूजा कर स्तुति करेंगे, वह दिन कब होयगा, या मांति मोसे कृपा कर दातो कारमा थे अर ताही समय नगर के लोक भेलो होय प्राय लोकापवादकी दावानलसो दुस्सह बातो रामसे कही सो राम बडे विचारके कर्ता चित्त में यह चिंतई यहलोक स्वभाव ही कर वक्र हैं सो और भांति अपवाद न मिटे या लोकापवादरो प्रियजनको तजना भला अशा मरणा भला, लोकापवादी यशका नाश होय कल्पान्त काल पर्यन्त अपयश जगतमें है मो भला नहीं ऐया विचार महाप्रवीण मेरा पति ताने लोकापवादके भयते मोहि महा अरण्ययन में तजा, मैं दोपरहिन सो पति नीके जाने अर लक्ष्मणने बहुन कहा सो न माना, मेरे ऐसा ही कर्मका उदय जे विशुद्ध मुलगे उपजे क्षत्री शुभचित्त सर्व शास्त्रनिके ज्ञाता तिनकी यही रीति है अर शाह न डरें एक लोकापवादसे डरें। यह अपने निकासने का वृत्तांस कह बहुरि रुदन करने लगी, शोवरूप अग्निकर बतायमान है चित्त जाका । सो याको रुदन करती अर रजकर धूसरा है अंग जाका महा दीन दुखी देख राजा वज्रजंघ उत्तम धर्मका धारणहारा अति उद्वेगको प्राप्त भया अर याको जनककी पुत्री जान समीप आय बहुत आदर से धीर्य बंधाया, पर कहता भया-हे शुभमते, तू जिनशासनमें प्रवीण है शोक कर रुदन मत करै, यह आतध्यान दुरुका बढावन हारा है, हे जानकी, या लोककी स्थिति तू जाने है तू महा सुज्ञान अनित्य अशरण एकत्व अन्यत्व इत्यादि द्वादश अनु हायों की चितवन करणहारी तेरा पति सम्यग् दृष्टि अर तू सम्यक्त्वसहित विवेकान्ती है रिथ्या दृष्टि जीवनिकी न्याई कहा बारम्बार शोक करे, तू जिनवाणीकी श्रोता अनेक बार महा मुनिनिके मुख श्रुतिके अर्थ सुने निरन्तर ज्ञान भावनाको धरणहारी तोहि शोक उचित नाही, अहो या संसारमें भ्रमता यह मूढ प्राणी वाने मोक्षमार्गको न जाना, याते कहा कहा दुख न पाये याको अनिष्टसंयोग इष्टवियोग अनेकवार भये यह अनादिकालसे भवसागरके मध्य क्लेश रूप भवर में पडा है, या जीवने तियंच योनिमें जलचर थलचर नभचर के शरीर पर या शीत आताप अादि अनेक दुख पाये पर मनुष्य देव में अपवाद विरह रुदन क्लेशादि अनेक दुख भोगे अर नरको शीत उष्ण छेदन भेदन शूलारोहण परस्पर घात महा दुर्गंध कारकड में निपात शुल्क रोग अनेक दुख लहे आर कबहूं अज्ञान तपकर अल्प ऋद्धिका धारक देवहू भया तहांहू उत्कृष्ट ऋद्धिके धारक देवनिको देख दुखी भया, अर मरणसमान महा दुखी होय विलापकर मूबा र काहू महा तपकर इन्द्रतुल्य उत्कृष्ट देव भया, तोहू विषयानुरागकर दुखी ही भया । या मांति चतुगतिमें भ्रमण करते या जीवने भवन में आधि व्याधि संयोग वियोग रोग शोक जन्म मृत्यु दुख दाह दरिद्रहीनता नानाप्रकारकी वांछा विकल्पता कर शोच संताप रूप हो। अनंत दुख पाये, अधोलोक मध्य लोक ऊर्ध्व लोक में ऐसा स्थानक नाही जहां या जीवने जन्म मरण न किये, अपने कर्म रूप पवन के प्रसंगवर भवसागर में भ्रमण करता जो यह जीव ताने मनुष्य देह में स्त्रीका शरीर पाया तहां अनेक दुःख भोगे, तेरे शुभ कर्मके उदयकर राम सारिखे सुन्दर पति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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