________________
५६३
esitater of
सात दिन रात्रका झड भया सो पामर तो घर से आय न सका और वे दोऊ स्याल अति क्षुधातुर अंधेरी रात्रि में आहारको निकसे सो पामर के खेत में भीजी नाडी कर्दमकर लिप्त पडी हुती सो उन भक्षण करी उसकर विकराल उदर वेदना उपजी, स्याल मृवे, अकाम निर्जराकर तुम सोम देवके पुत्र भए घर वह पामर सात दिन पीछे खेतमें आया सो दोऊ म्याल मृए देख अर नाडीं कटी देख स्थालनीका चर्म ले भथडी करी सो अब तक पांमरके घर में टंगी है अर पामर भरकर पुत्रके घर पुत्र मया मी जातिस्मरण होय मोन पकडा जो मैं कहा कहीं, पिता तो मेरा पूर्व भवका पुत्र अरमा पूर्व भव की बधू तातें न बोलना ही भल। सो यह पामरका जीव मौनी यहां हो बैठा है ऐसा कह मुनि पामरके जीवसू बोले- अहो तू पुत्रके पुत्र भया सो यह आश्चर्य नहीं, संसारका ऐसा ही चरित्र है जैसे नृत्यके अखाडेमें बहुरूपिया अनेक रूप बनाय नाचें तैसे यह जीव नाना पर्यायरूप भेष धर नाचे है, राजा रंक होय रकसे राजा होय' स्वामी सेवक, सेवकस स्वामी, पितासे पुत्र, पुत्रसे पिता, माता से भार्या, भार्यासे माता, यह संसार अटकी घडी हैं । ऊपरली नीचे नीचली ऊपर, ऐसा संसारका स्वरूप जान, हे वत्स ! अब तू गूंगापना तज, व चनालाप कर | या जन्मका पिता है तासे पिता कह, मातासे माता कह, पूर्व भवका कहा व्य बहार रहा ? यह वचन सुन वह विप्र हर्षकर रोमांच होय फूल गए हैं नेत्र जाके मुनिको तीन प्रदक्षिणा देय नमस्कारकर जैसे वृक्षकी जड उखड जाय अर गिर पडे तैसे पायन पडा अ मुनिको कहता भया - हे प्रभो, तुम सर्वज्ञ हो, सकल लोककी व्यवस्था जानो हो, या भयानक संसार सागरमें मैं डूबू था सो तुम दयाकर निकासा, श्रात्मबोध दिया। मेरे मनकी सब जानी
मोहि दीक्षा देवहु एसा कहकर समस्त कुटुम्बका त्यागकर मुनि भया ।
यह पामरका चरित्र सुन अनेक लोक मुनि भए अनेक श्रावक भये अर इन दोनों भाईनिकी पूर्व भवकी खाललोक ले आए सो इनिने देखी, लोकोंने हास्य करी जो यह मांस भक्षक स्वाल थे सो यह दोऊ भाई द्विज बडे मूर्ख, जो मुनिनिसे वाद करने श्राए । ये महामुनि तपोधन शुद्ध भाव सबके गुरु अहिंसा महाव्रतके धारक इन समान और नाहीं यह महामुनि महात्रतरूप दीक्षाके धारक नमारूप यज्ञोपत्रीत घरें ध्यानरूप अग्निहोत्रके कर्ता महाशांत मुक्ति के साधान तत्पर अर जे सर्व आरम्भ में प्रवरतें बह्मचर्य रहित वे मुखसे कहे हैं कि हम द्विज हैं परंतु क्रिया करे नहीं जैसे कोई मनुष्य या लोकमें सिंह कहांने देव कहावे परंतु वह सिंह नाहीं, तैसे यह नाममात्र ब्राह्मण कहावें परंतु इनमें वह्मत्व नाहीं अर मुनिराज धन्य हैं परम संयमी महा क्षमावान् तपस्त्री जितेंद्री निश्चय थकी ये ही ब्राह्मण हैं ये साधु महाभद्रपरणामी भगवत के भक्त महा तपस्वी यति थीर चीर मूल गुण उत्तरगुणके पालक इन समान पर कोऊ नाहीं यह अलौकिक गुण लिये हैं। पर इनहीकू परिवाजक कहिये काहेतै जो वह संसारकू तज मुक्तिको प्राप्त होंय ये निग्रन्थ अज्ञान तिमिरके हर्ता तपकर कर्मकी निर्जरा करें हैं, क्षीण किये हैं रागादिक जिन्होंने महाक्षमावान पापनिके नाशक तातैं इनको क्षपणक हू कहिये यह संयमी कषाय रहित शरीर तें निर्मोह दिगम्बर योगीश्वर ध्यानी ज्ञानी पंडित निस्पृह सो ही सदा वंदिवे योग्य हैं ये निवासको
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org