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अडतीसat पर्ण हो गया । और राजाकी आज्ञाकर मेघकी ध्वनि समान वादित्रनिके शब्द सेवक करते भए अर याचकनिको श्रतिदान देय उनकी इच्छा पूर्ण करते भए । नगरकेविष आनन्द वर्ता । राजाने लक्ष्मण कही- हे पुरुषोत्तम ! मेरी पुत्रीका तुम पाणिग्रहण किया चाहो हो तो करो, लक्ष्मण कही मेरे बड़े भाई अर भावज नगर के निकट तिष्ठ हैं तिनको पूछो । तिनकी आज्ञा होय सो तुम को हमको करनी उचित है । वे सर्व नीके जाने हैं तब राजा पुत्रीको अर लक्ष्मणको रथमें चढ़ाय सर्व कुम्बति रघुवीर पै चला, सो क्षोभको प्राप्त हुआ जो समुद्र ताकी गर्जना समान याकी सेनाका शब्द सुनकर अर धूलके पटल उठते देखकर सीता भयभीत हो कहती भई -- हे नाथ ! लक्ष्मण ने कुछ उद्धत चेश करी या दिशाविषै उपद्रव दृष्टिश्रा है तातें सावधान हो, जो कुछ करना होय सो करो । तब आप जानकी को उरसे लगाय कहते भए -देवी, भय मत करहु । ऐसा कहकर उठे धनुष ऊपर दृष्टि घरी, तब ही मनुष्य समूहके आगे स्त्रीजन सुंदर गान करती देखीं बहुरि निकट ही आई, सुन्दर हैं ग जिनके, स्थिनिको गावती र नृत्य करती देख श्रीरामको विश्वास उपजा, सीतासहित सुख से विराजे । स्त्रीजन सर्व आभूषण मंडित अति मनोहर मंगल द्रव्य हाथ में लिये हर्ष के भरे है नेत्र जिनके, रथ उतर कर आई, अर राजा शत्रुदमन भी बहुत कुटुंबसहित श्रीरामके चरणारविंदको नमस्कार कर बहुत विनयसू बैठा । लक्ष्मण
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जितपद्मा एक साथ रथविष बैठे आए हुने, सो उतरकर लक्ष्मण श्रीरामचन्द्रकु र जानकी को शीश नवाय प्रणाम कर महा विनयवान दूर बैठा, सो श्री राम राजा शत्रु मनसे कुशल प्रश्न वार्ता करि सुख बिराजे। रामके श्रागमन करि राजाने हर्षित होय नृत्य किया, महा भक्तिकरि नगर में चलनेकी विनती करी, श्रीराम अर सीता श्रर लक्ष्मण एक स्थविष विराजे । परम उत्साहसू राजा के महल पधारे | मानों वह राजमन्दिर सरोवर ही है स्त्री रूप कमलिनिते भरा लावण्यरूप जल है जाविष शब्द करते जे आभूषण तेई हैं सुन्दर पक्षी जहां, यह दोऊ वीर नवयौवन महाशोभासे पूर्ण कैयक दिन सुखसे विराजे, राजा शत्रुदमन करे है सेवा जिनकी ।
अथानन्तर सर्वलोक के चित्तको आनन्दके करणहारे राम लक्ष्मण महावीर वीर सीता सहित अर्धरात्रिको उठ चले, लक्ष्मणने प्रियवचनकर जैसे बनमालाको वीर्य बंधाया हुता तैसे जितपद्माको धीर्य बंधाया, बहुत दिलासाकर आप श्रीरामके लार भए । नगरके सर्व लोक अर नृपको इनके चले जानेते अति चिंता भई, धीर्य न रहा । यह कथा गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसू कहे हैं - हे मगधाधिपति, ते दोऊ भाई जन्मांतर के उपार्जे जे पुण्य तिनकरि सर्व जीवनि के वल्लभ जहां जहां गमन करें वहां तहां राजा प्रजा सर्वलोक सेवा करें अर यह चाहें कि यह न जायें तो भला । सर्व इन्द्रियन के सुख और महा मिष्ट अन्नपानादि बिना ही यत्न इनको सर्वत्र सुलभ, जे पृथिवी वर्ष दुर्लभ वस्तु हैं ते सब इनको प्राप्त होंय, महाभाग्य भव्य जीव सदा भोगनिते उदास हैं । ज्ञानके अर विषयानिके बैर है । ज्ञानी ऐसा चितवन करें हैं इन भोगनिकर प्रयोजन नाहीं । ये दुष्ट नाशको प्राप्त होंय या भांति यद्यपि भोगनिकी सदा निन्दा ही करे हैं भोगनिते विरक्त ही हैं। दीप्तिकरि जीता है सूर्य जिनने तथापि पूर्वोपार्जित पुण्यके प्रभावते पछाड के
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