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शिखरविर्ष निवास करे हैं तहां ह नानाप्रकार सामग्रीका संयोग होय है जबलगमुनिपदका उदय नाहीं तबलग देनों समान मुख भोगवे है। इति श्रीरविषेणोचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै जितपमा का
व्याख्यान वर्णन करनेवाला अडतीसवां पर्व पूर्ण भया ।। ३८॥
अथानन्तर ये दोऊ वीर महाधीर सीता सहित वनविषे आए। कैसा है वन ? नानाप्रकारके वृक्षनि कर शोभिन अनेक भांतिके पुष्पनिकी सुगंधि ताकर महासुगंध लतानिके मंडपनिकर युक्त तहां राम लक्षमण रमते रमते आए । कैसे हैं दोनों ? समस्त देवोपुनीत सामग्रीकर शरीरका है आधार जिनके कहूं इक मूगों के रंग समान महा सुन्दर वृक्षनिकी कूपल लेय श्रीराम जानकीके कर्णाभरण करे हैं कहूं यक छोटा वृक्षविष लग रही जो बेल ताकर हिंडोला बनाय दो भाई भाटा देय देय जानकीको झूलावे हैं अर आनन्दकी कथा कर सीताको विनोद उपजावे हैं। कभी सीता राममो कहे है-हे देव ! यह वेलि यह वृक्ष महामनोग्य दीखे हैं अर सीताके शरीरकी सुगंध ताकर भ्रमर आय लागे हैं, सो दोनो उडावे हैं या भांति नानाप्रकारके वनानिविष धीरे धीरे विहार करते दोऊ वीर मनोग्य हैं चारित्र जिनके जैसे स्वर्गके वनविष देवरमें तैसे रमते भए, अनेक देशनिको देखते अनुक्रमकर वंशस्थल नगर आए । ते दोनों पुण्याधिकारी तिनको सीताके कारण थोडी दूर ही आवनविष बहुत दिन लगे सो दीर्घकाल दुःख क्लेश का देनहारा न भया सदा सुखरूप ही रहे । नगरके निकट एक बंशथर नामा पर्वत देखा, मानो पृथिवी को भेद कर निकसा है जहां बांसनिके अति समूह तिनकरि मार्ग विषम है ऊचे शिखरनिकी छायाकरि मानों सदा संध्याको धारे है अर विझरनोंकर मानों हंसे है सो नगरते राजा प्रजाको निकसते देख श्रीरामचन्द्र पूछते भए-अहो कहा भयकर नगर तजो हो ? तब कोई यह कहता भया आज तीसरा दिन है। रात्रिके समय या पहाडके शिखरविष ऐसी ध्वनि होय है जो अबतक कबहु नाहीं सुनी, पृथिवी कंपायमान होय है अर दशों दिशा शब्दायमान होय हैं। पदनिकी जड उपड जाय हैं। सरोवरनिका जल चलायमान होय है। ता भयानक शब्दकर सर्व लोकनिके कान पीडित होय हैं मानों लोहेके मुदगलं कर मारे । कोई एक दुष्ट देव जगत्का कंटक हमारे मारनेके अर्थ उद्यमी होय है या गिरिपर क्रीडा करे है ताके भयकर संध्या समय लोक भागे हैं प्रभातविष बहुरि आवे हैं, पांव कोन परे जाय रहें हैं जहां वाकी ध्वनि न सुनिये, यह वार्ता सुन सीता राम लक्ष्मणसों कहती भई, जहां यह सब लोक जाय हैं वहां अपनहु चालें, जे नीतिशास्त्रके वेत्ता हैं वे देश कालको जानकर पुरुषार्थ करे हैं वे कदाचित् आपदाको नाहीं प्राप्त होय हैं। तब दोऊ धीर हंसकर कहते भए । तू भयकर बहुत कायर है सो यह लोक जहां जाय हैं वहां तू भी जाहु, प्रभात सब आवें तब तू पाइयो । हम तो आज या गिरिपर रहेंगे। यह अत्यन्त भयानक कौनकी ध्वनि होय है सो देखेंगे, यही निश्चय है यह लोक रंक हैं भयकर पशु बाबकनिको नेय भागे हैं। हमको काहुका भय नाहीं, तब सीता कहती मई, तिहारे हठको कौन
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