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________________ २५६ पद्म पुराण अमृतसे सींची गई, रोमांचकर संयुक्त भया है सर्व अङ्ग जाका, अर फरके है बाई आंख जाकी, मनमें चितवती भई । जो यह बारम्बार ऊंचा शब्द सुनिए कि जनक राजाका पुत्र जयवन्त होऊ, सो मेराहू पिता जनक है कनकका बडा भाई, अर मेरा भाई जन्मता ही हरा गया था सो वही न होय भैसा विचार कर भाई के स्नेहरूप जलकर भीज गया है मन जाका, सो ऊंचे स्वरकर रुदन करती भई । तत्र राम अभिराम कहिये सुन्दर है अङ्ग जाका, महामधुर वचनकर कहते भए - हे प्रिये ! तू काहे को रुदन करें है, जो यह तेरा भाई है तो अब खबर आवै है अर जो और है तो हे पंडित ! तू कहा सोच करें हैं ? जे विचक्षण हैं ते मुएका हरेका गएका नष्ट हुएका शोक न करें । हे वल्लभे ! जे कायर हैं और मूर्ख हैं उनके विषाद होय है अर जे पंडित हैं पराक्रमी हैं तिनके विषाद नाहीं हो है, या भांति रामके अर सीताके वचनालाप होवै है ताही समय बधाईवारे मंगल शब्द करते आए । तब राजा दशरथने नहाहर्षसे बहुत मदरसे नानाप्रकारके दान करे श्रर पुत्र कलत्र दि सर्व कुम्बसहित वनमें गया सो नगरके बाहिर चारों तरफ विद्याधरों की सेना सैकड़ों मामन्तोंसे पूर्ण देख आश्चर्यको प्राप्त भया, विद्याधरनिन इन्द्रके नगर तुल्य सेनाका स्थानक क्षमात्र में बना रखा है, जाके ऊंचा कोट बडा दरवाजा जे पताका तोरण 1 ते शोभायमान रत्ननिकरि मंडिन ऐना निवास देख राजा दशरथ जहां वनमें साधु विराजे हुते वहां गया, नमस्कारकर स्तुतिकर राजा चंद्रगतिका वैराग्य देखा । विद्याधरनि सहित श्रीगुरु की पूजा करी । राजा दशरथ सर्व बांधव सहित एक तरफ बैठा अर भामण्डल सर्व विद्याधरनि सहित एक तरफ बैठा । विद्याधर र भूमिगोचरी मुनिके पास यति श्रर श्रावकका धर्म श्रवण करते भए । भामण्डल पिताके वैराग्य होयवेकर कछु इक शोकवान बैठा तब मुनि कहते भए, जो यतिका धर्म है सो शूरवीरोंका है । जिनके गृहवास नाहीं महा शान्त दशा है । श्रानन्दका कारण है, महादुर्लभ है, त्रैलोक्य में सार हैं, कायर जीवनिको भयानक भासे है। भव्यजीव मुनि पदको पायकर अविनाशी धामको पावै हैं । अथवा इन्द्र अहमिंद्र पद लहें हैं, लोकके शिखर जो सिद्धस्थानक है पद बिना नाहीं पाइए है। कैसे हैं मुनि ? सम्यग्दर्शनकर मंडित हैं, जिस मार्गले निर्वाणके सुखको प्राप्त होय अर चतुर्गतिके दुखते छूटे सो ही मार्ग श्रेष्ठ हैं सो सर्व भूतहित सुनिने मेघ की गर्जना समान है ध्वनि जिनकी सर्व जीवनिके चित्तको आनन्दकारी ऐसे वचन कहे, कैसे हैं मुने ? समस्त तच्चोंके ज्ञाता सो मुनिके वचनरूपजल संदेहरूप तापको हरता जीवनिने कर्णरूप अंजुलियोंसे पीए । कैयक मुनि भए, कैक श्रावक भए, महा धर्मानुराग कर युक्त है चित्त जिनका, धर्मका व्याख्यान हो चुका तब दशरथ पूछता भया हे नाथ ! चन्द्रगति विद्याधरको कौन कारण वैराग्य उपजा घर सीता अपने भाई भामण्डलका चरित्र सुनने की इच्छा करती भई । कैसी है सीता १ महाविनयवंती है । तब मुनि कहते भए - हे दशरथ, तुम सुनो इन जीवनिकी अपने २ उपाजें कर्मनिकरि विचित्र गति है । यह भांमण्डल पूर्वं संसारमें अनन्त भ्रमणकर अति दुखित भया, कर्मरूपी पवनका प्रेरा या भव में श्राकाशसे पडता राजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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