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तासगाव गनि गोदमें लेय मुख चूम पूछना भया-हे पुत्र यह तू कौन भांति कही तर कुमार कहता भयाहे तात मेरा चरित्र सुनो पूर्वभवविगै मैं इस ही भरतक्षेत्र में विदग्धपुर नगर तहां कंडलमंडित राजा हुता परमंडलका लूटनेहारा सदा विग्रहका करणहारा पृथ्वीपर प्रसिद्ध निजप्रजाका पाल महावि. भवकर संयुक्त सो मैं पापी मायाचारकर एक विप्रकी स्त्री हरी। सो वह विप्र तो अतिदुखी होय कहीं चला गया अर मैं राजा अनरण्यके देशमें बाधा करी सो अनरण्यका सेनापति बालचन्द मोहि पकडकर लेगया पर मेरी सर्व सम्पदा हर लीनी। मैं शरीरमात्र रह ग1, कैएक दिन में बंदीगृ. इतें छूटा सो महादुःखित पृथ्वीपर भ्रमण करता मुनियोंके दर्शनको गया महावत अणुव्रतका व्याख्यान सुना तीन लोक पूज्य जो सर्वज्ञ वीतराग देव तिनका पवित्र जो मार्ग तादी श्रद्धा करी जगत के बांधव जे श्रीगुरु तिनकी आज्ञाकर मैंने मद्य मां का त्यागकर ब्रत आदरया, मेरी शक्तिहीन हुती सातें मैं विशेष व्रत न आदर सक्या, जिनशासनका अद्भुत माहात्म्य जो मैं महा पापी हुता सो एते ही व्रत से मैं दुर्गतिमें न गया, जिन धर्मके शरणकरि जनककी राणी विदेहाके गर्भ में उपजा अर सीता भी उपजी सो कन्या सहित मेरा जन्म भया पर वह पूर्वभवका विरोधी विन जाकी मैं स्त्री हरी हुती सो देव भया अर मोहि जन्मते ही जैसे गृद्ध पक्षी मांसकी डली को लेजाय तैसे नक्षत्रोंसे ऊपर आकाशमें ले गया सो पहिले तो उसने विचार किया कि याको मारू बहुरि करुणाकरि कुण्डल पहराय लघुपरण विद्याकर मोहि यस्नसों डारा सो रात्रिमें भाकाशवि पड़ता तुमने झेला अर दयावान होय अपनी राणी को सोंपा, सो मैं तिहारे प्रसादते वृद्धिको प्राप्त भया अनेक विद्याका धारक भया । तुमने बहुत लढाया अर माताने मेरी बहत प्रतिपालना करी। भामण्डल ऐसे कहके चुप हो रहा । राजा चन्द्रगति यह वृत्तांत सुनकर परम प्रबोधको प्राप्त भया पर इन्द्रियोंके विषयनिकी बासना तज महावैराग्य अंगीकार करनेको उद्यमी भया । ग्राम-धर्म कहिये स्त्रीसेवन सोई भया वृक्ष उसे सुफलोंसे रहित जान अर संसार का बंधन जानकर अपना राज्य भामण्डलको देश आप सर्व भूतहित स्वामीके समीप शीघ्र प्राया। वे सर्व भूतहित स्वामी पृथ्वी पर सूर्यसमान प्रसिद्ध गुणरूप किरणोंके समूहकर भव्य जीवनिको मानन्दके करनहारे, सो राजा चन्द्रगति विद्याधर महेंद्रोदय उद्यानमें आय मुनिकी अर्चना करी। फिर नमस्कार स्तुतिकर सीस नियाय हाथ जोड या भांति कहता भया-हे भगवन, तुम्हारे प्रसादकर मैं जिनदीमा लेय तप किया चाहूँ हूं मैं गृहवासते उदास भया तब मुनि कहते भए भवसागरसे पार करणहारी यह भगवती दीक्षा है सो लेप्रो। राजा तो वैराग्यकों उद्यमी भया पर भामण्डलके राज्यका उत्सव होता भया, ऊचे स्वर नगारे बाजे नारी गीत गावती भई, बांसुरी आदि अनेक वादित्रनिके समूह वाजते भए । ताल मंजीरा आदि कासरी के वादित्र वाजे 'शोभायमान जनक राजाका पुत्र जगवंत होवे' ऐमा बन्दीजननिका शब्द होता भया सो महेंद्रोदय उद्यानमें ऐसा मनोहर शब्द रात्रि में भया जाते अयोध्याके समस्त जन निद्रारहित होय गए। बहुरि प्रातः समय मुनिराजके मुख ने महाश्रेष्ठ शब्द सुनकर जैनी जन प्रति हर्षको प्राप्त भए। भर सीता 'जनक राजाका पुत्र जयवंत होऊ ऐसी ध्वनि सुनकर मानों
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