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________________ तृतीय पर्व गहना पहरावनेका उद्यम किया, चांद सूर्य समान दोय कुण्डल कानों में पहराये पर पद्मराग मणिके आभूषण मस्तकविष पहराए, जिनकी कांति दशों दिशाविप प्रगट होती भई अर अर्धचन्द्राकार ललाट (माथा) विष चंदनका तिलक किया अर दोनों भुजानिवि रत्नोंके बाजवंद पहराए अर श्रीवत्सलक्षण कर युक्त जो हृदय उस पर नक्षत्र माला समान मोतियोंका सत्ताईस लडीका हार पहराया अर अनेक लक्षणके धारक भगवानको महा मणिमई कडे पहराये पर रत्नमयी कटिसूत्रसे नितम्ब शोभायमान भया जैसा पहाड़का तट सांझकी बिजली कर शोभै पर सर्व अंगुरियोंविष रत्न जडित मुद्रिका पहराई । इस भांति भक्तिकरि देवियोंने सर्व ग्राभूपण पहराए सो त्रैलोक्यके आभूषण जो श्रीभगवान तिनके शरीरकी ज्योनिसे आभूषण अत्यन्न ज्योतिको धारते भए, अर आभूषणों करि आपके शरीर की कहा शोभा होय, अर कल्पवृक्षके फूलोंसे युक्त जो उत्तरासन सो भी दिया, जैसे तारानिसे आकाश शोभे है तेथे पुष्पन कर यह उत्तासन शोभ है वहुरि पारिजातसन्तानकादिक जे कल्पवृक्ष तिनके पुष्पनिकरि सेहरा रचा सिर पर पधराया जापर भ्रमर गुंजार करे हैं। इस भांति त्रैलोक्य भूषणको आभूषण पाराय इन्द्रादिक देव स्तुति करते भए । हे देव ! कालके प्रभावकरि नष्ट हो गया है धर्म जाविप ऐसा यह जगत् महा अज्ञान अन्धकार करि भरया है इस जगतमें भ्रमण करते भव्य जीवोंके मोह तिमिरके हरणेको तुम सूर्य ऊगे हो। हे जिनचंद्र ! तुम्हारे व वनरूप किरणोंसे भव्य जीवरूपी कुमुदिनीकी पंक्ति प्रफुल्लित होगी, भव्योंको तत्चके दिखावनेके अर्थ इस जगरूप घरमें तुम केवलज्ञानमयी दीपक प्रकट भये हो अर पापरूप शत्रु ओंके नाशने के लिये मानो तुम तीक्ष्य वाण ही हो अर तुम ध्यानाग्नि कर भव अटवी (जंगल) को भस्म करणेवाले हो अर दुष्ट इन्द्रियरूप जो सर्प तिनके वशीकरणके अर्थ तुम गरूडरूप हो अर संदेहरूप जे मेघ उनके उडावनेको महा प्रबल पवन ही हो, हे नाथ ! भव्य जीव रूपी पपैए तिहारे धर्मामृत रूप वचनके तिमाए तुमहीको महा मेघ जानकर सन्मुख भए देखे हैं तुम्हारी अत्यन्त निर्मल कीर्ति तीनलोकमें गाई जाती है, तुम्हारे ताई नमस्कार हो, तुम कल्पवृक्ष हो गुणरूप पुष्पोंसे मण्डित मन बांछित फलके देनहारे हो, कर्मरूप काष्ठके काटनेको तीक्षण धारके धारणहारे महा कुठाररूप हो तातें हे भगवन् ! तुमारे अर्थ हमारा बार बार नमस्कार होहु । अर मोह रूप पर्वतके भंजिवेको महा धज्ररूप हो अर दुःखरूप अग्निके बझावने को जल रूप ही हो, या अर्थ बारम्बार तुमको नमस्कार करू हूँ। हे निर्मलस्वरूप ! तुम कर्मरूप रजके संगसे रहित केवल आकारास्वरूप ही हो । इस भांति इन्द्रादिदव भगवान्की स्तुति कर बारम्बार नमस्कार कर, ऐरावत गज पर चढ़ाय अयोध्यामें लावनेको सन्मुख भए । अयोध्या आय इन्द्र माताकी गोदविषै भगवानको मेलि (स्थापन कर) परम आनन्दित हो तांडव नृत्य करते भए । इस भांति जन्मोत्सव कर देव अपने अपने स्थानकको गए। माता पिता भगवान को देखकर बहुत हर्षित भये । कैसे हैं श्रीभगवान ? अद्भुत आभूषणसे विभूषित हैं अर परम सुगन्धके लेपसे चरचित हैं अर सुन्दर चारित्र हैं जिनके शरीरकी कांतिसे दशों दिशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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