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________________ नौवां पर्व १०१ हैं, सातानि शिलापर निश्चल बबाणयों को ऐसे दास मानो पाषाणका थंभ ही है। रावण पाली मुनिको देखकर पूर्व बैर चितार पापों क्रोधरूपी अग्निसे प्रज्वलित भया । भकुटि चढ़ार होंठ डसत कठोर शब- मुनिका कहता भा-'अहो यह बडा नप तेरा, जो अब भी अभिमान न छूटा । मेरा विमान चलता थांमा। वहां उनम पारूप वीसमाधम का अर पाप रूप क्रोष कहां, तू वृथा खेद करे है । अमृत अर विपको एक किया चाहे तातै मैं तेरा गर्व दूर करूंगा, तुझ सहित कैलाश पर्वतको उखाड़ समुद्र डार दूंग" ऐसठोर वचन कहकर रावणने विकराल रूप किया । सर्व विद्यः जे साधी हैं तिनकी अधिष्ठाता देवी चितवनमात्रसे प्राय ठाढी भई, सो विद्यामलकर सकशालेमाका किया, धरती कोमेद पातालमें बैरा, महा पापविष उद्यनी है प्रचण्ड क्रोधार लाल नेत्र जारी कर हूंकार शब्द र वाव ल है मुम्ब जाका, भुजावोंकर कैज्ञाश पर्व के उस डा उनम किया तब हि ही पहिरग इत्यादि अनेक जीव अर अनेक जातिके पत्रो भमरसोता लब्द करने भर। जज नी करने टूट गए, जल गिरने लगा, वृक्षों के र.मू. फट गए, पर्वतकी शिला पर प.पाण पड़ते भए, तिनके विकराल शब्दकर दशों दिशा पूरित भई, कैलाश पर्वत चलापमान भया । जो देव क्रीड़ा करते हुते ते आश्चर्यको प्राप्त भये, दशों 'देशा की ओर देखते भो अर जो अप्सरा लतावोंके मण्डपमें केलि करती हुती सो ललाबों को छोड़ प्राकाश गान करती भई। ___ भगवान बालाने रावण । कर्ता जान पाप धीरवीर क्रोयरहित का भी खेद न माना जैसे निश्चल विराजते हुते तो ही रहे । चित्तने वाचार किया जो पर्वतार भगवानके चैत्यालय अति उत्तम महासुन्दरताकर शोभित र.र्व रजयी भरन चक्रवर्ती कराये हैं, जहां निरन्तर भक्तिसंयुक्त सुर अनुर विद्याधर पूजाको अवै हे, की या पात: कमायान होकर चैत्यालयोंका भंग न होप अर यहां अनेक जीव विवर है तिर बाधः नशे गा विचारकर अपने चरणका अंगुष्ठ ढीला दमाया को रापण महाभ सक्रांत होय दया । बहु रूप बनाया था सो भंग भया, महादुःख कर व्याकुल नत्रांसे रक्त करने लगा, मुकुट गया अर माथा भोग गया, पर्वत बैठ गया, रावणके गोड़े छिल गए, जंघा भी छिल गई, तत्काल सेवों भंगना अर धरती पसेवकर गीली भई, रावण के गात्र सकुच गये, कछुवे समान हो गया, तब रोणे लगा, ताही कारणसे पृथ्वीमें रावण कहाया । अब तक दशानन कहावै था । इसके अत्यन्त दीन शब्द सुनकर इसकी राणी अत्यन्त विलाप करती भई अर मंत्री सेनापति लार के पर्व सुपट पहिले तो भ्रमकर वृथा युद्ध करनेको उद्यमी भए थे पीछे मुनिका अतिशय जान सर्व आयुष डार दिये, मुनिके काय बल ऋद्धिके प्रभावतें देव दुन्दुभी बजाने लगे हर कल्पवृक्षों के फूलोंकी वर्षा भई तापर भ्रमर गुंजार करते भये, आकाशमें देव देवी नृत्य करते भए, गीतको पनि होती भई । तब महामुनि परभदयालुने अंगुष्ठ ढीला किया। रावण ने पर्वतके तलेसे निकस बाली मुनिके समीप आय नमस्कार कर क्षमा कराई अर जाना है तपका बल जान योगीश्वर की बारम्बार स्तुति करता भया हे नाथ ! तुमने घर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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