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________________ ४६८ पद्म-पुराण ही मनोग्य हुती श्रीरामचन्द्र अति शोभित करी जैसे कोई स्वर्ग सुनिये है जहां महा संपदा है मानों रामलक्ष्मण स्वर्गसे आए सो मानों सर्व संपदा ले आए। श्रागे अयोध्या हुती तातें राम के पधारें अति शोभायमान भई । पुण्यहीन जीवोंको जहांका निवास दुर्लभ अपने शरीरकर तथा शुभ लोकोंकर तथा स्त्री धनादि कर रामचन्द्रने स्वर्ग तुल्य करी, सर्व ठौर रामका यश परन्तु सीता के पूर्व कर्मके दोषकर मूढ लोग यह अपवाद करें- देखो विद्याधरोंका नाथ रावण उसने सीता हरी को राम बहुरि न्याये घर गृहमें राखी यह कहा योग्य ? राम महा ज्ञानी बड़े कुलीन चक्री महा शूरवीर तिनके घर में जो यह रीति तो और लोकोंकी क्या बात ? इस भांति शठ जन वार्ता करें ॥ अथानन्तरस्वर्ग लोकको लज्जा उपजावे भी अयोध्यापुरी तहाँ भरत इंद्रसमान भोगनिकर भी रति न मानते भए, अनेक स्त्रीनिके प्राणवल्लभ सो निरंतर राज्य लक्ष्मीसे उदास, सदा भोगोकी निंदा ही करें । भरतका मंदिर अनेक मन्दिरनिकर मण्डित नानाप्रकारके रत्ननिकर निर्मात मोतिनिकी मालावर शोभित फूल रहे हैं वृक्ष जहां अनेक आश्चर्यका भरा सब ऋतुके विलासवर युक्त जहां बीण मृदंगादिक अनेक वादित्र वाजैं देवांगना समान अतिसुन्दर स्त्रीजनोकर पूर्ण जाके चौगिरद मदोन्मत्त हाथी गाजें, श्रेष्ठ तुरंग हींस, गीत नृत्य वादित्रनिकर महा मनोहर रत्नों के उद्योतकर प्रकाशरूप महारमणीक क्रीडाका स्थानक जहां देवोंको रुचि उपजै परंतु भरत संसारसे भयभीत अति उदास उसे तहां रुचि नाहीं, जैसे पारधीकर भय भीत जो मृग सो किसी ठौर विश्राम न लहै भरत ऐसा विचार करें कि मैं यह मनुष्य देह महाकष्टसे पाई सो पानीके बुदबुदावत् क्षण भंगुर अर यह यौवन झागोंके पुत्र समान अति असार दोषोंका भरा अर ये भोग अति विरस इनमें सुख नाहीं । यह जीतव्य स्वप्न समान अर कुटुम्बका सम्बन्ध जैसे वृक्षनिपर पक्षियोंका मिलाप रात्रिहो होय प्रभात ही दशों दिशाको उड जावें ऐसा जान जो मोका कारण धर्म न करें सो जराकर जर्जरा होय शोकरूप अग्निकर जरै । यह नव यौवन मूढ़ों को वल्लभ, यामें कौन विवेकी राग करे कदाचित् न करै । यह अपवादके समूहका निवास संध्या के उद्योत समान विनश्वर श्रर यह शरीररूपी यन्त्र नाना व्याधिके समूहका घर पिता के वीर्य माता के रुथिरसे उपजा यामें कहा रति, जैसे इन्धनकर अग्नि तृप्त न होय र समुद्र जलसे तृप्त न होय तैसे इन्द्रियनिक विषयनिकर तृप्ति न होय । यह विषय अनादिसे अनंतकाल सेए परंतु तृप्तिकारी नाहीं यह मूढ जीव काममें आसक्त अपना भला बुरा न जाने पतंग समान विषयरूप अग्निमें पड पापी महा भयंकर दुःखको प्राप्त होय । यह स्त्रीनिके कुच मांसके पिण्ड महावीभत्स गलगंड समान तिन में कहा रति, अर स्त्रीनिका मुखरूप विल दतरूप कीडोंकर भरा तांबूल के रसकर लाल छुरीके घाव समान तामें कहा शोभा पर स्त्रीकी चेष्टा वायुविकार समान विरूप उन्मादकर उपजी उसमें कहा प्रीति अर भोग रोग समान हैं महा खेदरूप दुखके निवास इनमें कहा विलास अर यह गीत वादित्र नाद रुदन समान तिनमें कहा प्रीति, रुदनकर भी महल के गुम्मट गाजे यर गानकर भी गाजे । नारियोंका शरीर मलमूत्रादिकर पूर्ण चर्मकर वेष्टित याके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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