________________
तिरासीव! पर्ण
४६६ सेवनमें कहा सुख होय। विष्टाके कुम्भ तिनका संयोग अतिबीभत्स अति लज्जकरी महादुःखरूप नारियोंके भोग उनमें मूढ सुख माने देवनिके भोग इच्छा उत्पन्न होते ही पूर्ण होंय तिनकर भी जीव तृप्त न भया तो मनुष्योंके भोगकर कैम तृप्त होय जैसे डाभकी अणीपर जो ओस की बूंद ताकर कहा तृषः बुझे अर जैसे इन्धनका वेचनहारा मिरपर भार लाय दुखी होय तैसे राज्यके भारका धरणहारा दुखी होय हमारे बडोंविष एक राजा सोदास उत्तम भोजनकर तृा न भया अर पापी अभक्ष्यका आहारकर राज्यभ्रट भया जैसे गंगाके प्रवाहमें मांगका लोभी काग मृतक हाथीके शरीरको चूथता तृप्त न मया समुद्रमें डूब मुवा तैय यह विषयाभिलापी भवसमुद्र में डूबेहै यह लोक मींडकसमान मोहरूप कीचविषमग्न लोभरूप पर असे नरक में पडे हैंऐसे चिन्तवन करते शांतचित्त भरत को कैयक दिवस अति विरससे वीते जैसे सिंह महा समर्थ पींजरे में पडः खेदखिन्न रहे, ताके वनमें जायवेकी इच्छा तैसे भरत महाराजके महाव्रत धारिवेकी इच्छा, सो घरमें सदा उदास ही रहे, महाव्रत सर्व दुःखका नाशक, एक दिवस वह शांतचित्त घर तजिवेको उद्यमी भया तब केकईके कहसे राम लक्ष्मणने थांभा, पर महा स्नेहकर कहते भए-हे भाई ! पिना वैराग्यको प्राप्त भए तब तोहि पृथिवीका राज्य दिया सिंहासन पर बैठाया सो तू हमारा सर्व घुवंशियोंका स्वामी है लोकका पालन कर, यह सुदर्शनचक्र यह देव अर विद्याधर तेरी पानाम हैं या धराको नारी समान भोग, मैं तेरे सिर पर चन्द्रमा समान उज्ज्वल छत्र लिए खडा रहूं अर भाई शत्रुघ्न चमर ढारे अर लक्ष्मण सा सुन्दर तेरे मंत्री अर तू हमारा वचन न मानेगा तो मैं बहुरि विदेश उठ जाऊंगा मृगोंकी न्याई वन उपवनमें रहूँगा, मैं तो राक्षसोंका तिलक जो रावण ताहि जीत तेरे दर्शनके अर्थ आया अब तू निःकंटक राज्य कर, पीछे नेरे साथ मैं भी मुनिव्रत श्रादरूगा । इस भांति महा शुभचित्त श्रीराम भाई भरतसे कहते भए।
- तब भरत महानि पह विषयरूप विषसे अति विरक्त कहता भया–हे देव ! मैं राज्य संपदा तुरंत ही तजा चाहूं हूं जिसको तजकर शगीर पुरुष मोक्ष प्राप्त भए । हे नरेन्द्र, अर्थ काम महा चंचल भहादुखके कारण जीवोंके शत्रु महापुरुषोकर न्यि हैं तिनको मूढ जन सेवें हैं, हे हलायुध यह क्षणभंगुर भोग तिनमें मेरी तृष्णा नाहीं यद्यपि स्वर्गलोक समान भोग तुम्हारे प्रसादकर अपने घरमें हैं तथापि मुझे रुचि नाहीं । यह संसार सागर महा भयानक है जहां मृन्युरूप पातालकुण्ड महाविषम है अर जन्म रूप कल्लोल उठे हैं अर राग द्वेष रूप नाना प्रकारके भयंकर जलचर हैं अर रति अरति क्षार जल कर पूर्ण है जहां शुभ अशुभकप चोर विचरे हैं सो मैं मुनिव्रत रूप जहाजमें बैठकर संसारसमुद्रको तिरा चाहूं हूं । हे राजेंद्र ! मै नाना प्रकार योनिमें अनन्त काल जन्म मरण किए, नरक निगोदमें अनन्त कष्ट सहे गर्भवासादिमें खेदखिन्न भया । यह वचन भरतके सुन बडे बडे राजा आंखोंसू आंसू डारते भए महा आश्चर्यको प्राप्त होय गदगद वाणीसे कहते भए-हे महाराज ! पिताका वचन पालो कैयक दिन राज्य करो अर तम इस राजलक्ष्मीको चंचल जान उदास भए हो तो कैयक दिन पीछे मुनि हजियो अवार तो तुम्हारे बडे भाई आए हैं तिनको साता देखो तब भरतने कही--मैं तो पिताके वचन प्रमाण बहुत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org